श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
श्रीभगवानुवाच
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारी भक्ति और प्रार्थना से प्रसन्न होकर तुम पर दया करके अपना गुण, प्रभाव और तत्त्व समझाने के लिये मैंने तुमको यह अलौकिक रूप दिखलाया है। ऐसी स्थिति में तुम्हें भय, दुःख और मोह होने का कोई कारण ही नहीं था; फिर तुम इस प्रकार भय से व्याकुल क्यों हो रहे हो? प्रश्न- ‘आत्मयोगात्’ का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे इस विराट् रूप के दर्शन सब समय और सबको नहीं हो सकते। जिस समय मैं अपनी योगशक्ति से इसके दर्शन कराता हूँ, उसी समय होते हैं। वह भी उसी को होते हैं, जिसको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो; दूसरे को नहीं। अतएव इस रूप का दर्शन प्राप्त करना बड़े सौभाग्य की बात है। प्रश्न- ‘रूपम्’ के साथ ‘इदम्’, ‘परम्’, ‘तेजोमयम्’, ‘आद्यम्’, ‘अनन्तम्’ और ‘विश्वम्’ विशेषण देने का क्या भाव है? उत्तर- इन विशेषणों के प्रयोग से भगवान् अपने अलौकिक और अद्भुत विराट्स्वरूप का महत्त्व अर्जुन को समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि मेरा यह रूप अत्यन्त उत्कृष्ट और दिव्य है, असीम और दिव्य प्रकाश का पुंज है, सबको उत्पन्न करने वाला, सबका आदि है, असीम रूप से विस्तृत है, किसी ओर से भी इसका कहीं ओर-छोर नहीं मिलता। तुम जो कुछ देख रहे हो, यह पूर्ण नहीं है। यह तो मेरे उस महान् रूप का अंशमात्र है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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