श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षोडश अध्याय
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
उत्तर- मनुष्य योनि में जीव को भगवत्प्राप्ति का अधिकार है। इस अधिकार को प्राप्त होकर भी जो मनुष्य इस बात को भूलकर दैव-स्वभाव रूप भगवत्प्राप्ति के मार्ग को छोड़कर आसुर स्वभाव का अवलम्बन करते हैं, वे मनुष्य-शरीर का सुअवसर पाकर भी भगवान् को नहीं पा सकते- यही भाव दिखलाने के लिये ऐसा कहा गया है। यहाँ दयामय भगवान् मानो जीव की इस दशा पर तरस खाते हुए यह चेतावनी देते हैं कि मनुष्य-शरीर पाकर आसुर-स्वभाव का अवलम्बन करके मेरी प्राप्तिरूप जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित मत होओ। प्रश्न- वे जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं- ऐसा कहने का क्या तात्पर्य है? उत्तर- ऐसा कहकर भगवान् यह दिखलाते हैं कि हजारों-लाखों बार वे आसुरी योनि में ही जन्म लेते हैं, उन्हें ऊँची योनि नहीं मिलती। प्रश्न- उससे भी अति अधम गति को ही प्राप्त होते हैं- इससे क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि वे आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य हजारों-लाखों बार आसुरी योनि में जन्म लेकर फिर उससे भी नीच, महान् यातनामय कुम्भीपाक, महारौरव, तामिस्र और अन्धतामिस्र आदि घोर नरकों में पड़ते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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