पंचम अध्याय
तेरहवें में सांख्ययोगी की स्थिति बतलाकर चौदहवें और पंद्रहवें में परमेश्वर को कर्म, कर्तापन और कर्मों के फल-संयोग का न रचने वाला तथा किसी के भी पुण्य-पाप को ग्रहण न करने वाला कहकर यह बतलाया है कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान के ढके जाने से ही सब जीव मोहित हो रहे हैं। सोलहवें में ज्ञान का महत्त्व बतलाकर सत्रहवें में ज्ञानयोग के एकान्त साधन का वर्णन किया है, फिर अठारहवें से बीसवें तक परब्रह्म परमात्मा में निरन्तर अभिन्न भाव से स्थित रहने वाले महापुरुषों की समदृष्टि और स्थिति का वर्णन करके उनको परमगति का प्राप्त होना बतलाया है। इक्कीसवें में अक्षय आनन्द की प्राप्ति का साधन और उसकी प्राप्ति बतलायी गयी है।
बाईसवें में भोगों को दुःख के कारण और विनाशशील बतलाकर तथा विवेकी मनुष्य के लिये उनमें आसक्त न होने की बात कहकर तेईसवें में काम-क्रोध के वेग को सहन कर सकने वाले पुरुष को योगी और सुखी बतलाया है। चौबीसवें से छब्बीसवें तक सांख्ययोगी की अन्तिम स्थिति और निर्वाणब्रह्म को प्राप्त ज्ञानी महापुरुषों के लक्षण बतलाकर सत्ताईसवें और अट्ठाईसवें में फल सहित ध्यान योग का संक्षिप्त वर्णन किया गया है और अन्त में उतीसवें श्लोक में भगवान् को समस्त यज्ञों के भोक्ता, सर्वलोकमहेश्वर और प्राणिमात्र के परमसुहृद् जान लेने का फल परम शान्ति की प्राप्ति बतलाकर अध्याय का उपसंहार किया गया है।
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