श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- ‘इमाम्’ पद भी उसी पूर्वश्लोक में वर्णित समभावरूप बुद्धि का वाचक है। अतः उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वही समभाव कर्मयोग के साधन में किस प्रकार होता है, कर्मयोगी को किस प्रकार समभाव रखना चाहिये और उस समता का क्या फल है- ये सब बातें मैं अब अगले श्लोक से तुम्हें बतलाना आरम्भ करता हूँ; अतएव तू उन्हें सुनने के लिये सावधान हो जा। प्रश्न- यदि यही बात है तो इकतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक का प्रकरण किसलिये है? उत्तर- वह प्रकरण अर्जुन को यह समझाने के लिये है कि तुम क्षत्रिय हो, युद्ध तुम्हारा स्वधर्म है, उसका त्याग तुम्हारे लिये सर्वथा अनुचित है और उसका करना सर्वथा लाभप्रद है। और अड़तीसवें श्लोक में यह बात समझायी गयी है कि जब युद्ध करना ही है तो उसे ऐसी युक्ति से करना चाहिये जिससे वह बन्धन का हेतु न बन सके। इसीलिये ज्ञानयोग और कर्मयोग- इन दोनों ही साधनों में समभाव से युक्त होना आवश्यक बतलाया गया है और इस श्लोक में उस समभाव का दोनों प्रकार के साधनों के साथ देहली-दीपकन्याय से सम्बन्ध दिखलाया गया है। प्रश्न- यहाँ ‘कर्मबन्धम्’ पद का क्या अर्थ है और उपर्युक्त समबुद्धि से उसका नाश कर देना क्या है? उत्तर- जन्म-जन्मान्तर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों से यह जीव बँधा है तथा इस मनुष्य शरीर में पुनः अहंता, ममता, आसक्ति और कामना से नये-नये कर्म करके और भी अधिक जकड़ा जाता है। अतः यहाँ इस जीवात्मा को बार-बार नाना प्रकार की योनियों में जन्म-मृत्यु रूप संसार चक्र में घुमाने के हेतुभूत जन्म-जन्मान्तर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों के संचित संस्कार समुदाय का वाचक ‘कर्मबन्धम्’ पद है। कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके तथा सिद्धि और असिद्धि में सम होकर यानी राग-द्वेष और हर्ष-शोक आदि विकारों से रहित होकर जो इस जन्म और जन्मान्तर में किये हुए तथा वर्तमान में किये जाने वाले समस्त कर्मों में फल उत्पन्न करने की शक्ति को नष्ट कर देना- उन कर्मों को भूने हुए बीज की भाँति कर देना है- यही समबुद्धि से कर्मबन्धन को सर्वथा नष्ट कर डालना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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