प्रथम अध्याय
सम्बन्ध- धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय कहते हैं-
संजय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत ।। 2 ।।
संजय बोले -उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह रचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।। 2 ।।
प्रश्न - दुर्योधन को राजा; कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर - संजय के द्वारा दुर्योधन को ‘राजा’ कहे जाने में कई भाव हो सकते हैं-
(क) दुर्योधन बड़े वीर और राजनीतिज्ञ थे तथा शासन का समस्त कार्य दुर्योधन ही करते थे।
(ख) संत सभी को आदर दिया करते हैं और संजय संत-स्वभाव के थे।
(ग) पुत्र के प्रति आदरसूचक विशेषण का प्रयोग सुनकर धृतराष्ट्र को प्रसन्नता होगी।
प्रश्न - व्यूहरचना युक्त पाण्डव-सेना को देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास गये, इसका क्या भाव है?
उत्तर - भाव यह है कि पाण्डव-सेना की व्यूहरचना इतने विचित्र ढंग से की गयी थी कि उसको देखकर दुर्योधन चकित हो गये और अधीर होकर स्वयं उसकी सूचना देने के लिये द्रोणाचार्य के पास दौड़ गये। उन्होंने सोचा कि पाण्डव-सेना की व्यूहरचना देख-सुनकर धनुर्वेद के महान् आचार्य गुरु द्रोण उनकी अपेक्षा अपनी सेना की और भी विचित्र रूप से व्यूहरचना करने के लिये पितामह को परामर्श देंगे।
प्रश्न - दुर्योधन राजा होकर स्वयं सेनापति के पास क्यों गये? उन्हीं को अपने पास बुलाकर सब बातें क्यों नहीं समझा दीं?
उत्तर - यद्यपि पितामह भीष्म प्रधान सेनापति थे, परंतु कौरव-सेना में गुरु द्रोणाचार्य का स्थान भी बहुत उच्च और बड़े ही उत्तरदायित्व का था। सेना में जिन प्रमुख योद्धाओं की जहाँ नियुक्ति होती है, यदि वे वहाँ से हट जाते हैं तो सैनिक-व्यवस्था में बड़ी गड़बड़ी मच जाती है। इसलिये द्रोणाचार्य को अपने स्थान से न हटाकर दुर्योधन ने ही उनके पास जाना उचित समझा। इसके अतिरिक्त द्रोणाचार्य वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध होने के साथ ही गुरु होने के कारण आदर के पात्र थे तथा दुर्योधन को उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना था, इसलिये भी उन्हें सम्मान देकर उनका प्रियमात्र बनना उन्हें अभीष्ट था। पारमार्थिक दृष्टि से तो सबसे नम्रतापूर्ण सम्मानयुक्त व्यवहार करना कर्तव्य है ही, राजनीति में भी बुद्धिमान् पुरुष अपना काम निकालने के लिये दूसरों का आदर किया करते हैं। इन सभी दृष्टियों से उनका वहाँ जाना उचित ही था।
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