श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
उत्तर- अर्जुन इतना तो जानते थे कि यह उग्ररूप श्रीकृष्ण का ही है; परन्तु इस भयंकर रूप को देखकर उनके मन में यह जानने की इच्छा हो गयी कि ये श्रीकृष्ण वस्तुतः हैं कौन, जो इस प्रकार का भयंकर रूप भी धारण कर सकते हैं। इसीलिये उन्होंने यह भी कहा है कि आप आदि पुरुष को मैं विशेषरूप से जानना चाहता हूँ। प्रश्न- ‘देववर’ सम्बोधन देकर भगवान् को नमस्कार करने का और प्रसन्न होने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जो देवताओं में सर्वश्रेष्ठ हो उसे ‘देववर’ कहते हैं। अतः भगवान् को ‘देववर’ नाम से सम्बोधित करके अर्जुन उनके ईश्वरत्व को व्यक्त करके उनको नमस्कार कर रहे हैं, तथा उनके भयानक रूप को देखकर अर्जुन भयभीत हो गये थे। अतः उनसे प्रसन्न होने की प्रार्थना कर रहे हैं। प्रश्न- आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि यह इतना भयंकर रूप- जिसमें कौरव-पक्ष के और हमारे प्रायः सभी योद्धा प्रत्यक्ष नष्ट होते दिखलायी दे रहे हैं- आप मुझे किसलिये दिखला रहे हैं; तथा अब निकट भविष्य में आप क्या करना चाहते हैं- इस रहस्य को मैं नही जानता। अतएव अब आप कृपा करके इसी रहस्य को खोलकर बतलाइये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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