प्रथम अध्याय
सम्बन्ध- अपने महारथी योद्धाओं की प्रशंसा करके अब दुर्योधन दोनों सेनाओं की तुलना करते हुए अपनी सेना को पाण्डव-सेना की अपेक्षा शक्तिशालिनी और उत्तम बतलाते हैं-
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्मभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।। 10 ।।
भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है ।। 10 ।।
प्रश्न- दुर्योधन ने अपनी सेना को भीष्मपितामह के द्वारा रक्षित और अपर्याप्त बतलाकर क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर- इससे दुर्योधन ने हेतुसहित अपनी सेना का महत्त्व सिद्ध किया है। उनका कहना है कि हमारी सेना उपर्युक्त बहुत-से महारथियों से परिपूर्ण है और परशुराम-सरीखे युद्धवीर को भी छका देने वाले, भूमण्डल के अद्वितीय वीर भीष्मपितामह के द्वारा संरक्षित है तथा संख्या में भी पाण्डव-सेना की अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक है। ऐसी सेना पर विजय प्राप्त करना किसी के लिये सम्भव नहीं है; वह सब प्रकार से अपर्याप्त-आवश्यकता से कहीं अधिक शक्तिशालिनी, अतएव सर्वथा अजेय है। महाभारत, उद्योगपर्व के पचपनवें अध्याय में जहाँ दुर्योधन ने धृतराष्ट्र के सामने अपनी सेना का वर्णन किया है, वहाँ भी प्रायः इन्हीं महारथियों के नाम लेकर और भीष्म द्वारा संरक्षित बतलाकर उसका महत्त्व प्रकट किया है। और स्पष्ट शब्दों में कहा है-
गुणहीनं परेषाञ्च बहु पश्यामि भारत।
गुणोदयं बहुगुणमात्मनश्च विशाम्पते।।[1]
‘हे भरतवंशी राजन्! मैं विपक्षियों की सेना को अधिकांश में गुणहीन देखता हूँ और अपनी सेना को बहुत गुणों से युक्त और परिणाम में गुणों का उदय करने वाली मानता हूँ।’ इसलिये मेरी हार का कोई कारण नहीं है। इसी प्रकार भीष्म पर्व में भी जहाँ दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के सामने फिर से अपनी सेना का वर्णन किया है, वहाँ उपर्युक्त गीता के श्लोक को ज्यों-का-त्यों दोहराया है।[2] और उसके पहले श्लोक में तो यहाँ तक कहा है।
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