श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षोडश अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले से तीसरे श्लोक तक दैवीसम्पद् को प्राप्त पुरुष के लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करके चौथे में आसुरी सम्पद् का संक्षेप में निरूपण किया गया है। पाँचवें में दैवीसम्पद् का फल मुक्ति तथा आसुरी का फल बन्धन बतलाते हुए अर्जुन को दैवीसम्पद् से युक्त बतलाकर आश्वासन दिया गया है। छठे में पुनः दैव और आसुर- इन दो सर्गों का संकेत करके आसुर सर्ग को विस्तारपूर्वक सुनने के लिये कहा गया है। तदनन्तर सातवें से बीसवें तक आसुर प्रकृति वाले मनुष्यों के दुर्भाव, दुर्गुण और दुराचार का तथा उन लोगों की दुर्गति का वर्णन किया गया है। इक्कीसवें में आसुरी सम्पदा के प्रधान काम, क्रोध और लोभ को नरक के द्वार बतलाकर बाईसवें में उनसे छूटे हुए साधक को निष्काम भाव से दैवीसम्पदा के साधनों द्वारा परमगति की प्राप्ति दिखलायी है। तेईसवें में शास्त्रविधि का त्याग करके इच्छानुसार कर्म करने वालों की निन्दा करके चौबीसवें श्लोक में शास्त्रानुकूल कर्म करने की प्रेरणा करते हुए अध्याय का उपसंहार किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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