श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- क, अ, ईश और व- इन चारों के मिलने से ‘केशव’ पद बनता है। अतः क-ब्रह्मा, अ-विष्णु, ईश-शिव-ये तीनों जिसके व-वपु अर्थात् स्वरूप हों, उसको केशव कहते हैं। यहाँ अर्जुन भगवान् को ‘केशव’ नाम से सम्बोधित करके यह भाव दिखलाते हैं कि आप समस्त जगत् के सृजन, संरक्षण और संहार करने वाले, सर्वशक्तिमान् साक्षात् सर्वज्ञ परमेश्वर हैं; अतः आप ही मेरे प्रश्नों का यथार्थ उत्तर दे सकते हैं। प्रश्न- ‘स्थितप्रज्ञस्य’ पद के साथ ‘समाधिस्थस्य’ विशेषण के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- पूर्वश्लोक में भगवान् ने अर्जुन से यह बात कही थी कि जब तुम्हारी बुद्धि समाधि में अर्थात् परमात्मा में अचल भाव से ठहर जायगी, तब तुम योग को प्राप्त होओगे। उसके अनुसार यहाँ अर्जुन भगवान् से उस सिद्ध पुरुष के लक्षण जानना चाहते हैं, जो परमात्मा को प्राप्त हो चुका है और जिसकी बुद्धि परमात्मा में सदा के लिये अचल और स्थिर हो गयी है। यही भाव स्पष्ट करने के लिये ‘स्थितप्रज्ञस्य’ के साथ ‘समाधिस्थस्य’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- उपर्युक्त अवस्था परमात्मा को प्राप्त सिद्ध पुरुष की अक्रिय-अवस्था माननी चाहिये अथवा सक्रिय-अवस्था? उत्तर- दोनों ही अवस्थाएँ माननी चाहिये; अर्जुन ने भी यहाँ दोनों की ही बातें पूछी हैं- ‘किं प्रभाषेत’ और ‘किं व्रजेत’ से सक्रिय की और ‘किमासीत’ से अक्रिय की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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