षष्ठ अध्याय
सम्बन्ध- पाँचवे अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने ‘कर्मसंन्यास’ (सांख्ययोग) और ‘कर्मयोग’ इन दोनों में से कौन-सा एक साधन मेरे लिये सुनिश्चित कल्याणप्रद है?- यह बतलाने के लिये भगवान् से प्रार्थना की थी। इस पर भगवान् ने दोनों साधनों को कल्याणप्रद बतलाया और फल में दोनों की समानता होने पर भी साधन में सुगमता होने के कारण ‘कर्मसंन्यास’ की अपेक्षा ‘कर्मयोग’ की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। तदन्तर दोनों साधनों के स्वरूप, उनकी विधि और उनके फल का भली-भाँति निरूपण करके दोनों के लिये ही अत्यन्त उपयोगी एवं परमात्मा की प्राप्ति का प्रधान उपाय समझकर संक्षेप में ध्यानयोग का भी वर्णन किया। परंतु दोनों में से कौन-सा साधन करना चाहिये, इस बात को न तो अर्जुन को स्पष्ट शब्दों में आज्ञा ही की गयी और न ध्यानयोग का ही अंग-प्रत्यंगो सहित विस्तार से वर्णन हुआ। इसलिये अब ध्यानयोग का अंगोंसहित वर्णन करने के लिये छठे अध्याय का आरम्भ करते हैं और सबसे पहले अर्जुन को भक्तियुक्त कर्मयोग में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से कर्मयोग की प्रशंसा करते हुए ही प्रकरण का आरम्भ करते हैं-
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ।। 1 ।।
श्रीभगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियओं का त्याग करने वाल योगी नहीं है ।। 1 ।।
प्रश्न - यहाँ कर्मफल के आश्रय का त्याग बतलाया गया, आसक्ति के त्याग की कोई बात इसमें नहीं आयी, इसका क्या कारण है?
उत्तर - जिस पुरुष की भोगों में या कर्मों में आसक्ति होती है, वह कर्मफल के आश्रय का सर्वथा त्याग कर ही नहीं सकता। आसक्ति होने पर स्वाभाविक ही कर्मफल की कामना होती है। अतएव कर्मफल के आश्रय का जिसमें त्याग है, उसमें आसक्ति का त्याग भी समझ लेना चाहिये। प्रत्येक स्थान पर सभी शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ करता। ऐसे स्थलों पर उसी विषय में अन्यत्र की हुई बात का अध्याहार कर लेना चाहिये। जहाँ फल का त्याग बतलाया जाय परंतु आसक्ति के त्याग की चर्चा न हो[1], वहाँ आसक्ति का भी त्याग समझ लेना चाहिये। इसी प्रकार जहाँ आसक्ति का त्याग कहा जाय पर फल-त्याग की बात न हो[2], वहाँ फल का त्याग भी समझ लेना चाहिये।
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