श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
प्रथम अध्याय
भगवान् श्रीकृष्ण को रण-निमन्त्रण देने के लिये दुर्योधन द्वारका पहुँचे, उसी दिन अर्जुन भी वहाँ पहुँच गये। दोनों ने जाकर देखा-भगवान् अपने भवन में सो रहे हैं। उन्हें सोते देखकर दुर्योधन उनके सिरहाने एक मूल्यवान् आसन पर जा बैठे और अर्जुन दोनों हाथ जोड़कर नम्रता के साथ उनके चरणों के सामने खड़े हो गये। जागते ही श्रीकृष्ण ने अपने सामने अर्जुन को देखा और फिर पीछे की ओर मुड़कर देखने पर सिरहाने की ओर बैठे दुर्योधन दीख पड़े। भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों का स्वागत-सत्कार किया और उनके आने का कारण पूछा। तब दुर्योधन ने कहा- ‘मुझमें और अर्जुन में आपका एक-सा ही प्रेम है और हम दोनों ही आपके सम्बन्धी हैं; परंतु आपके पास पहले में आया हूँ, सज्जनों का नियम है कि वे पहले आने वाले की सहायता किया करते हैं। सारे भूमण्डल में आज आप ही सब सज्जनों में श्रेष्ठ और सम्माननीय हैं, इसलिये आपको मेरी ही सहायता करनी चाहिऐ।’ भगवान् ने कहा- ‘निःसन्देह, आप पहले आये हैं; परंतु मैंने पहले अर्जुन को ही देखा है। इसलिये मैं दोनों की सहायता करूँगा। परंतु शास्त्रानुसार बालकों की इच्छा पहले पूरी की जाती है, इसलिये पहले अर्जुन की इच्छा ही पूरी करनी चाहिये। मैं दो प्रकार से सहायता करूँगा। एक ओर मेरी अत्यन्त बलशालिनी नारायणी-सेना रहेगी और दूसरी ओर मैं, युद्ध न करने का प्रण करके, अकेला रहूँगा; मैं शस्त्र का प्रयोग नहीं करूँगा। अर्जुन! धर्मानुसार पहले तुम्हारी इच्छा पूर्ण होनी चाहिये; अतएव दोनों में से जिसे पसंद करो, माँग लो!’ इसवपर अर्जुन ने शत्रुनाशन नारायण भगवान् श्रीकृष्ण को माँग लिया। तब दुर्योधन ने उनकी नारायणी-सेना माँग ली और उसे लेकर वे बड़ी प्रसन्नता के साथ हस्तिनापुर को लौट गये। इसके बाद भगवान् ने अर्जुन से पूछा- ‘अर्जुन! जब मैं युद्ध ही नहीं करूँगा, तब तुमने क्या समझकर नारायणी सेना को छोड़ दिया और मुझको स्वीकार किया?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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