श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
उत्तर- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान के अभ्यास का नाम ‘अभ्यासयोग’ है। ऐसे अभ्यासयोग के द्वारा जो चित्त भलीभाँति वश में होकर निरन्तर अभ्यास में ही लगा रहता है, उसे ‘अभ्यासयोगयुक्त’ कहते हैं। प्रश्न- ‘नान्यगामी’ कैसे चित्त को समझना चाहिये? उत्तर- जो चित्त किसी पदार्थ विशेष के चिन्तन में लगा दिये जाने पर क्षणभर के लिये भी उसके चिन्तन को छोड़कर दूसरे पदार्थ का चिन्तन नहीं करता-जहाँ लगा है, वहीं लगातार एकनिष्ठ होकर लगा रहता है, उस चित्त को नान्यगामी अर्थात् दूसरी ओर न जाने वाला कहते हैं। यहाँ परमेश्वर का विषय है, इससे यह समझना चाहिये कि वह चित्त परमेश्वर में ही लगा रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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