श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
पहले षट्क का प्रथम अध्याय तो प्रस्तावना रूप में है, उसमें तो इनमें से किसी भी योग का विषय नहीं है। दूसरे में ग्यारहवें से तीसवें श्लोक तक सांख्ययोग (ज्ञानयोग) का विषय है, इसके बाद उनतालीसवें श्लोक से लेकर तीसरे अध्याय के अन्त तक प्रायः कर्मयोग का विस्तृत वर्णन है। चौथे और पाँचवें अध्यायों में कर्मयोग और ज्ञानयोग का मिला हुआ वर्णन है तथा छठे अध्याय में प्रधानरूप से ध्यानयोग का वर्णन है; साथ ही प्रसंगानुसार कर्मयोग आदि का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार यद्यपि इस षट्क में सभी विषयों का मिश्रण है, तथापि दूसरे दोनों षट्कों की अपेक्षा इसमें कर्मयोग का वर्णन अधिक है। इसी दृष्टि से इसको कर्मयोगप्रधान षट्क माना जाता है। सातवें अध्याय से लेकर बारहवें अध्याय तक के बीच के षट्क में प्रसंगवश कहीं-कहीं दूसरे विषयों की चर्चा होने पर भी सभी अध्यायों में प्रधानता से भक्तियोग का ही विशद वर्णन है; इसलिये इस षट्क को तो भक्तिप्रधान मानना उचित ही है। अन्तिम षट्क में तेरहवें और चौदहवें अध्यायों में स्पष्ट ही ज्ञानयोग का प्रकरण है। पंद्रहवें में भक्तियोग का वर्णन है; सोलहवें में दैवी और आसुरी संपत् की व्याख्या है; सत्रहवें में श्रद्धा, आहार और यज्ञ, दान, तप आदि का निरूपण है और अठारहवें अध्याय में गीता का उपसंहार होने से उसमें कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों ही योगों का वर्णन है तथा अन्त में शरणागति-प्रधान भक्तियोग में उपदेश का पर्यवसान किया गया है। इतना होने पर भी यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि ज्ञानयोग का जितना वर्णन इस अन्तिम षट्क में किया गया है, उतना पहले और दूसरे में नहीं है। इसीलिये इसको ज्ञानयोग प्रधान कहा जा सकता है। अध्याय का नाम- परमात्मा के निर्गुण निराकार तत्त्व के प्रभाव, माहात्म्य आदि के रहस्य सहित पूर्णरूप से जान लेने का नाम ‘ज्ञान’ और सगुण निराकार एवं साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, महत्त्व, गुण और प्रभाव आदि के पूर्ण ज्ञान का नाम ‘विज्ञान’ है। इस ज्ञान और विज्ञान के सहित भगवान् के स्वरूप को जानना ही समग्र भगवान् को जानना है। इस अध्याय में इसी समग्र भगवान् के स्वरूप का, उसके जानने वाले अधिकारियों का और साधनों का वर्णन है- इसीलिये इस अध्याय का नाम ‘ज्ञानविज्ञान योग’ रखा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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