श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
अर्जुन उवाच
उत्तर- भगवान् के तेजोमय अद्भुत रूप को देखकर अर्जुन का भगवान् में जो श्रद्धा-भक्तियुक्त अत्यन्त पूज्यभाव हो गया था, उसी को दिखलाने के लिये यहाँ ‘देव’ सम्बोधन का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘तव देहे’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इन दोनों पदों का प्रयोग करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपका जो शरीर मेरे सामने उपस्थित है, उसी के अन्दर में इन सबको देख रहा हूँ। प्रश्न- जब अर्जुन यह बात कह दी कि मैं आपको शरीर में समस्त चराचर प्राणियों के विभिन्न समुदायों को देख रहा हूँ, तब समस्त देवों को देख रहा हूँ- यह अलग कहने की क्या आवश्यकता रह गयी? उत्तर- जगत के समस्त प्राणियों में देवता सबसे श्रेष्ठ माने जाते हैं, इसीलिये उनका नाम अलग लिया है। प्रश्न- ब्रह्मा और शिव तो देवों के अंदर आ ही गये, फिर उनके नाम अलग क्यों लिये गये और ब्रह्मा के साथ ‘कमलासनस्थम्’ विशेषण क्यों दिया गया? उत्तर- ब्रह्मा और शिव देवों के भी देव हैं तथा ईश्वरकोटि में हैं, इसलिये उनके नाम अलग लिये गये हैं। एवं ब्रह्मा के साथ ‘कमलासनस्थम्’ विशेषण देकर अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं भगवान् विष्णु की नाभि से निकले हुए कमल पर विराजित ब्रह्मा को देख रहा हूँ अर्थात् उन्हीं के साथ आपके विष्णुरूप को भी आपके शरीर में देख रहा हूँ। प्रश्न- समस्त ऋषियों को और दिव्य सर्पों को अलग बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- मनुष्यलोक के अंदर सब प्राणियों में ऋषियों को और पाताल लोक में वासुकि आदि दिव्य सर्पों को श्रेष्ठ माना गया है। इसीलिये उनको अलग बतलाया है। यहाँ स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों लोकों के प्रधान-प्रधान व्यक्तियों के समुदाय की गणना करके अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि मैं त्रिभुवनात्मक समस्त विश्व को आपके शरीर में देख रहा हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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