द्वादश अध्याय
सम्बन्ध- दूसरे अध्याय से लेकर छठे अध्याय तक भगवान् ने जगह-जगह निर्गुण ब्रह्म की और सगुण-साकार परमेश्वर की उपासना की प्रशंसा की है। सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक तो विशेष रूप से सगुण-साकार भगवान् की उपासना का महत्त्व दिखलाया है। इसी के साथ पाँचवें अध्याय में सतरहवें से छब्बीसवें श्लोक तक, छठे अध्याय में चौबीसवें से उनतीसवें तक, आठवें अध्याय में ग्यारहवें से तेरहवें तक तथा इसके सिवा और भी सगुण-साकार भगवान् की अनन्य भक्ति का फल भगवत्प्राप्ति बतलाकर ‘मत्कर्मकृत्’ से आरम्भ होने वाले इस अन्तिम श्लोक में सगुण-साकार स्वरूप भगवान् के भक्त की विशेष रूप से बड़ाई की। इस पर अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा हुई कि निर्गुण-निराकार ब्रह्म की और सगुण-साकार भगवान् की उपासना करने वाले दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम उपासक कौन है, इसी जिज्ञासा के अनुसार अर्जुन पूछ रहे हैं -
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा: ।। 1 ।।
अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अति श्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों के प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं।। 1 ।।
प्रश्न- ‘एवम्’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘एवम्’ पद से अर्जुन ने पिछले अध्याय के पचपनवें श्लोक में बतलाये हुए अनन्य भक्ति के प्रकार का निर्देश किया है।
प्रश्न- ‘त्वाम्’ पद यहाँ किसका वाचक है और निरन्तर भजन-ध्यान में लगे रहकर उसकी श्रेष्ठ उपासना करना क्या है?
उत्तर- ‘त्वाम्’ पद यद्यपि यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का वाचक है, तथापि भिन्न-भिन्न अवतारों में भगवान् ने जितने सगुणरूप धारण किये हैं एवं दिव्य धाम में जो भगवान् का सगुणरूप विराजमान है- जिसे अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार लोग अनेकों रूपों और नामों से बतलाते हैं- यहाँ ‘त्वाम्’ पद को उन सभी का वाचक मानना चाहिये; क्योंकि वे सभी भगवान् श्रीकृष्ण से अभिन्न हैं। उन सगुण भगवान् का निरन्तर चिन्तन करते हुए परम श्रद्धा और प्रेमपूर्वक निष्कामभाव से जो समस्त इन्द्रियों को उनकी सेवा में लगा देना है, यही निरन्तर भजन-ध्यान में लगे रहकर उनकी श्रेष्ठ उपासना करना है।
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