श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- पूर्व श्लोकों में जिनके लिये स्वधर्मपालन अवश्य कर्तव्य बतलाया गया है एवं स्वधर्मपालन न करने से जिनको ‘अघायु’ कहकर जिनके जीवन को व्यर्थ बतलाया गया है, उन सभी मनुष्यों से विलक्षण शास्त्र के शासन से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महापुरुषों को अलग करके उनकी स्थिति का वर्णन करने के लिये यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘आत्मरतिः’, ‘आत्मतृप्तः’ और ‘आत्मनि एवं सन्तुष्टः’- इन तीनों विशेषणों के सहित ‘यः’ पद किस मनुष्य का वाचक है तथा उसे ‘मानवः’ कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- उपर्युक्त विशेषणों के सहित ‘यः’ पद यहाँ सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी महात्मा पुरुष का वाचक है और उसे ‘मानवः’ कहकर यह भाव दिखलाया है कि हरेक मनुष्य ही साधन करके ऐसा बन सकता है, क्योंकि परमात्मा की प्राप्ति में मनुष्यमात्र का अधिकार है। प्रश्न- ‘एव’ अव्यय के सहित ‘आत्मरतिः’ विशेषण का क्या भाव है? उत्तर- इस विशेषण से यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष की दृष्टि में यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्न से जगे हुए मनुष्य के लिये स्वप्न की सृष्टि की भाँति हो जाता है। अतः उसकी किसी भी सांसारिक वस्तु में किंचिन्मात्र भी प्रीति नहीं होती और वह किसी भी वस्तु में रमण नहीं करता, केवल मात्र एक परमात्मा में ही अभिन्नभाव से उसकी अटल स्थिति हो जाती है। इस कारण उसके मन-बुद्धि संसार में रमण नहीं करते। उनके द्वारा केवल परमात्मा के स्वरूप का ही निश्चय और चिन्तन स्वाभाविक रूप से होता रहता है। यही उसका आत्मा में रमण करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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