पंचम अध्याय
सम्बन्ध- तीसरे और चौथे अध्याय में अर्जुन ने भगवान् के श्रीमुख से अनेकों प्रकार से कर्मयोग की प्रशंसा सुनी और उसके सम्पादन की प्रेरणा तथा आज्ञा प्राप्त की। साथ ही यह भी सुना कि ‘कर्मयोग के द्वारा भगवत्स्वरूप का तत्त्वज्ञान अपने-आप ही हो जाता है’[1]; चौथे अध्याय के अन्त में भी उन्हें भगवान् के द्वारा कर्मयोग के सम्पादन की ही आज्ञा मिली। परंतु बीच-बीच में उन्होंने भगवान् के श्रीमुख से ही ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः’, ‘ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृ’, ‘तद्विद्धि प्रणिपातेन’ आदि वचनों द्वारा ज्ञानयोग अर्थात् कर्मसंन्यास की भी प्रशंसा सुनी। इससे अर्जुन यह निर्णय नहीं कर सके कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है। अतएव अब भगवान् के श्रीमुख से ही उसका निर्णय कराने के उद्देश्य से अर्जुन उनसे प्रश्न करते हैं-
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।। 1 ।।
अर्जुन बोले- हे कृष्ण आप कर्मों के संन्यास की और कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिये इन दोनों में से जो के मेरे लिये भली-भाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये।। 1 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘कृष्ण’ सम्बोधन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘कृष्’ धातु का अर्थ है आकर्षण करना, खींचना और ‘ण’ आनन्द का वाचक है। भगवान् नित्यानन्दस्वरूप हैं, इसलिये वे सबको अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसी से उनका नाम ‘कृष्ण’ है। यहाँ भगवान् को ‘कृष्ण’ नाम से सम्बोधित करके अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि आप सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ परमेश्वर हैं, अतः मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने में आप ही पूर्ण समर्थ हैं।
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