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दशम अध्याय
सम्बन्ध- सातवें अध्याय के पहले श्लोक में अपने समग्ररूप का ज्ञान कराने वाले जिस विषय को सुनने के लिये भगवान् ने अर्जुन को आज्ञा दी थी तथा दूसरे श्लोक में जिस विज्ञानसहित ज्ञान को पूर्णतया कहने की प्रतिज्ञा की थी- उसका वर्णन भगवान् ने सातवें अध्याय में किया। उसके बाद आठवें अध्याय में अर्जुन के सात प्रश्नों का उत्तर देते हुए भी भगवान् ने उसी विषय का स्पष्टीकरण किया; किंतु वहाँ कहने की शैली दूसरी रही, इसलिये नवम अध्याय के आरम्भ में पुनः विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करके उसी विषय को अंग-प्रत्यंगों सहित भलीभाँति समझाया। तदनन्तर दूसरे शब्दों में पुनः उसका स्पष्टीकरण करने के लिये दसवें अध्याय के पहले श्लोक में उसी विषय को पुनः कहने की प्रतिज्ञा की और पाँच श्लोकों द्वारा अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन करके सातवें श्लोक में उनके जानने का फल अविचल भक्तियोग की प्राप्ति बतलायी। फिर आठवें और नवें श्लोकों में भक्तियोग के द्वारा भगवान् के भजन में लगे हुए भक्तों के भाव और आचरण का वर्णन किया और दसवें तथा ग्यारहवें में उसका फल अज्ञानजनित अन्धकार का नाश और भगवान् की प्राप्ति करा देने वाले बुद्धियोग की प्राप्ति बतलाकर उस विषय का उपसंहार कर दिया। इस पर भगवान् की विभूति और योग को तत्त्व से जानना भगवत्प्राप्ति में परम सहायक है, यह बात समझकर अब सात श्लोकों में अर्जुन पहले भगवान् की स्तुति करके भगवान् से उनकी योगशक्ति और विभूतियों का विस्तारसहित वर्णन करने के लिये प्रार्थना करते हैं-
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्मा परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।। 12 ।।
आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।।13 ।।
अर्जुन बोले- आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषिगण, दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवल ऋषि तथा महर्षि व्यास भी कहते हैं और स्वयं आप अभी मेरे प्रति कहते हैं।।12-13।।
प्रश्न- ‘आप परमब्रह्म’, ‘परम धाम’ और ‘परम पवित्र’ हैं- अर्जुन के इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जिस निर्गुण परमात्मा को ‘परम ब्रह्म’ कहते हैं वे आपके ही स्वरूप हैं तथा आपका जो नित्यधाम है वह भी सच्चिदानन्दमय दिव्य और आपसे अभिन्न होने के कारण आपका ही स्वरूप है तथा आपके नाम, गुण, प्रभाव, लीला और स्वरूपों के श्रवण, मनन और कीर्तन आदि सबको सर्वथा परम पवित्र करने वाले हैं; इसलिये आप ‘परम पवित्र’ हैं।
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