श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के प्रथम श्लोक में अर्जुन ने भगवान् से शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक यजन करने वालों की निष्ठा पूछी है‚ इसके उत्तर में भगवान् के द्वारा दूसरे में गुणों के अनुसार त्रिविध स्वाभाविक श्रद्धा का वर्णन किया गया है; तीसरे में श्रद्धा के अनुसार ही पुरुष का स्वरूप बतलाया गया है; चौथे में सात्त्विक‚ राजस और तामस श्रद्धायुक्त पुरुषों के द्वारा क्रमशः देव, यक्ष, राक्षस और भूत-प्रेतों के पूजे जाने की बात कही गयी है; पाँचवें और छठे में शास्त्रविरुद्ध घोर तप करने वालों की निन्दा की गयी है; सातवें में आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद सुनने के लिये अर्जुन को आज्ञा दी गयी है; आठवें, नवें और दसवें श्लोकों में क्रमशः सात्त्विक, राजस और तामस आहार का वर्णन किया गया है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें में क्रमशः सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञ के लक्षण बतलाये गये हैं। चौदहवें, पंद्रहवें और सोलहवें में क्रमशः शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप के स्वरूप का कथन करके सत्रहवें में सात्त्विक तप के लक्षण बतलाये गये हैं तथा अठारहवें और उन्नीसवें में क्रमशः राजस और तामस तप के लक्षणों का वर्णन किया गया है। बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवें में क्रमशः सात्त्विक, राजस और तामस दान के लक्षणों की व्याख्या की गयी है। तेईसवें में ‘ऊँ तत्सत्’ की महिमा बतलायी गयी है। चौबीसवें में ‘ऊँ’ के प्रयोग की, पचीसवें में ‘तत्’ शब्द के प्रयोग की और छब्बीसवें तथा सत्ताईसवें में ‘सत्’ शब्द के प्रयोग की व्याख्या की गयी है एवं अन्त के अट्ठाइसवें श्लोक में बिना श्रद्धा के किये हुए यज्ञ, दान, तप आदि कर्मों को इस लोक और परलोक में सर्वथा निष्फल और असत् बतलाकर अध्याय का उपसंहार किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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