श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैंने जो प्रसन्न होकर तुम्हें इस परम दुर्लभ विराट्स्वरूप के दर्शन कराये हैं, इससे तुम्हारे अंदर व्याकुलता और मूढ़भाव का होना कदापि उचित न था। तथापि जब इसे देखकर तुम्हें व्यथा तथा मोह हो रहा है और तुम चाहते हो कि मैं अब इस स्वरूप को संवरण कर लूँ, तब तुम्हारे इच्छानुसार तुम्हें सुखी करने के लिये अब मैं इस रूप को तुम्हारे सामने से छिपा लेता हूँ; तुम मोहित और डर के मारे व्यथित न होओ। प्रश्न- ‘त्वम्’ के साथ ‘व्यपेतभीः’ और ‘प्रीतमनाः’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘त्वम्’ के साथ ‘व्यपेतभीः’ और ‘प्रीतमनाः’ विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस रूप से तुम्हें भय और व्याकुलता हो रही थी, उसको संवरण करके अब मैं तुम्हारे इच्छित चतुर्भुजरूप में प्रकट होता हूँ; इसलिये तुम भयरहित और प्रसन्न-मन हो जाओ। प्रश्न- ‘रूपम्’ के साथ ‘तत्’ और ‘इदम्’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है? तथा ‘पुनः’ पद का प्रयोग करके उस रूप को देखने के लिये कहने का क्या भाव है? उत्तर- ‘तत्’ और ‘इदम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि जिस चतुर्भुज देवरूप के दर्शन मैंने तुमको पहले कराये थे एवं अभी जिसके दर्शन के लिये तुम प्रार्थना कर रहे हो, अब तुम उसी रूप को देखा; यह वही रूप अब तुम्हारे सामने है। अभिप्राय यह है कि अब तुम्हारे सामने से वह विश्वरूप हट गया है और उसके बदले चतुर्भुजरूप प्रकट हो गया है, अतएव अब तुम निर्भय होकर प्रसन्न मन से मेरे इस चतुर्भुजरूप के दर्शन करो। ‘पुनः’ पद के प्रयोग से यहाँ यह प्रतीत होता है कि भगवान् ने अर्जुन को अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन पहले भी कराये थे, पैंतालीसवें और छियालीसवें श्लोकों में की हुई अर्जुन की प्रार्थना में ‘तत् एव’ और ‘तेन एव’ पदों के प्रयोग से भी यही भाव स्पष्ट होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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