श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताप कदाचन ।
उत्तर- दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से लेकर उपर्युक्त श्लोक तक अर्जुन को अपने गुण, प्रभाव, रहस्य और स्वरूप का तत्त्व समझाने के लिये भगवान् ने जो उपदेश दिया है, उस समस्त उपदेश-का वाचक यहाँ ‘इदम्’ पद है। इसके अधिकारी का निर्णय करने के लिये भगवान् ने चार दोषों से युक्त मनुष्यों को यह उपदेश सुनाने की मनाही की है। उसमें से उपर्युक्त वाक्य के द्वारा तपरहित मनुष्य को इसे सुनाने की मनाही की गयी है। अभिप्राय यह है कि यह गीताशास्त्र बड़ा ही गुप्त रखनेयोग्य विषय है, तुम मेरे अतिशय प्रेमी भक्त और देवी सम्पदा से युक्त हो, इसलिये इसका अधिकारी समझकर मैंने तुम्हारे हित के लिये तुम्हें ये उपदेश दिया है। अतः जो मनुष्य स्वधर्म-पालनरूप तप करने वाला न हो, भोगों की आसक्ति के कारण सांसारिक विषय-सुख के लोभ से अपने धर्म का त्याग करके पापकर्मों में प्रवृत्त हो-ऐसे मनुष्य को मेरे गुण, प्रवाह और तत्त्व के वर्णन से भरपूर यह गीताशास्त्र नहीं सुनाना चाहिये; क्योंकि वह इसको धारण नहीं कर सकेगा, इससे इस उपदेश का और साथ-ही-साथ मेरा भी अनादर होगा। प्रश्न- भक्तिरहित मनुष्य से भी कभी नहीं कहना चाहिये; इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे भक्तिरहित मनुष्य को उपर्युक्त उपदेश सुनाने की मनाही की है। अभिप्राय यह है कि जिसका मुझ परमेश्वर में विश्वास, प्रेम और पूज्य भाव नहीं है; और जो अपने को ही सर्वेसर्वा समझने वाला नास्तिक है- ऐसे मनुष्य को भी यह अत्यन्त गोपनीय गीताशास्त्र नहीं सुनाना चाहिये, क्योंकि वह इसे सुनकर इसके भावों को न समझने के कारण इसे धारण नहीं कर सकेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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