श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: ।
उत्तर- भगवान् कहते हैं कि जो जन्म-जन्मान्तर से पाप करते आये हैं और इस जन्म में भी जो जान-बूझकर पापों में ही प्रवृत्त हैं, ऐसे दुष्कृती-पापात्मालोग; तथा ‘प्रकृति क्या है, पुरुष क्या है, भगवान् क्या है और भगवान् के साथ जीव का और जीव के साथ भगवान् का क्या सम्बन्ध है?’ इन बातों को जानना तो दूर रहा, जो यह भी नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि मनुष्य-जन्म का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति है और भजन ही उसका प्रधान कर्तव्य है, ऐसे विवेकहीन मूढ़ मनुष्य तथा जिनके विचार और कर्म नीच हैं- विषयासक्ति, प्रमाद तथा आलस्य की अधिकता से जो केवल विषयभोगों में जीवन नष्ट करते रहते है और उन्हीं को प्राप्त करने के उद्देश्य से निरन्तर निन्दित-नीच कर्मों में ही लगे रहते हैं, ऐसे ‘नराधम’ नीच व्यक्ति, तथा माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है-विपरीत भावना और अश्रद्धा की अधिकता से जिनका विवेक नष्ट-भ्रष्ट हो गया है और इसलिये जो वेद, शास्त्र, गुरुपरम्परा के सदुपदेश, ईश्वर, कर्मफल और पुनर्जन्म में विश्वास न करके मिथ्या कुतर्क एवं नास्तिकवाद में ही उलझे रहकर दूसरों का अनिष्ट करते हैं ऐसे अज्ञानीजन; और इन सब दुर्गणों के साथ ही जो दम्भ, दर्प, अभिमान, कठोरता, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि आसुर भावों का आश्रय लिये हुए हैं, ऐसी आसुरी प्रकृति के मूढ़लोग मुझको कभी नहीं भजते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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