श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
उत्तर- ज्ञानी महापुरुषों का अन्तःकरण सर्वथा परिशुद्ध हो जाता है, इसलिये उसमें काम-क्रोधादि विकार लेशमात्र भी नहीं रहते। ऐसे महात्माओं के मन और इन्द्रियों द्वारा जो कुछ भी क्रिया होती है, सब स्वाभाविक ही दूसरों के हित के लिये ही होती है। व्यवहारकाल में आवश्यकतानुसार उनके मन और इन्द्रियों द्वारा यदि शास्त्रनुकूल काम-क्रोध का बर्ताव किया जाय तो उसे नाटक में स्वाँग धारण करके अभिनय करने वाले के बर्ताव के सदृश केवल लोकसंग्रह के लिये लीलामात्र ही समझना चाहिये। प्रश्न- यहाँ ‘यति’ शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर- मल, विक्षेप और आवरण- ये तीन दोष ज्ञान में महान् प्रतिबन्धकरूप होते हैं। इन तीनों दोषों का सर्वथा अभाव ज्ञानी में ही होता है। यहाँ ‘कामक्रोधवियुक्तानाम्’ से मलदोष का, ‘यतचेतसाम्’ से विक्षेप दोष का और ‘विदितात्मनाम्’ से आवरण दोष का सर्वथा अभाव दिखलाकर परमात्मा के पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति बतलायी गयी है। इसलिये ‘यति’ शब्द का अर्थ यहाँ सांख्ययोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त आत्मसंयमी तत्त्वज्ञानी मानना उचित है। प्रश्न- ज्ञानी पुरुषों के लिये सब ओर से शान्त परब्रह्म ही परिपूर्ण हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी महापुरुषों के अनुभव में ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर, यहाँ -वहाँ सर्वत्र नित्य-निरन्तर एक विज्ञानानन्दघन परब्रह्म परमात्मा ही विद्यमान हैं। एक अद्वितीय परमात्मा के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ की सत्ता ही नहीं है, इसी अभिप्राय से कहा गया है कि उनके लिये सभी ओर से परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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