श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
सम्बन्ध- दसवें अध्याय के सातवें श्लोक तक भगवान् ने अपने विभूति तथा योगशक्ति का और उनके जानने के माहात्म्य का संक्षेप में वर्णन करके ग्यारहवें श्लोक तक भक्तियोग और उसके फल का निरूपण किया। इस पर बारहवें से अठारहवें श्लोक तक अर्जुन ने भगवान् की स्तुति करके उनसे दिव्य विभूतियों का और योगशक्ति का विस्तृत वर्णन करने के लिये प्रार्थना की। तब भगवान् ने चालीसवें श्लोक तक अपनी विभूतियों का वर्णन समाप्त करके अन्त में योगशक्ति का प्रभाव बतलाते हुए समस्त ब्रह्माण्ड को अपने एक अश में धारण किया हुआ करकर अध्याय का उपसंहार किया। इस प्रसंग को सुनकर अर्जुन के मन में उस महान् स्वरूप को (जिसके एक अंश में समस्त विश्व स्थित है) प्रत्यक्ष देखने की इच्छा उत्पन्न हो गयी। इसीलिये इस ग्यारहवें अध्याय के आरम्भ में पहले चार श्लोकों में भगवान् की और उनके उपदेश की प्रशंसा करते हुए अर्जुन उनसे विश्वरूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना करते हैं। अर्जुन उवाच
उत्तर- दसवें अध्याय के प्रारम्भ में प्रेम-समुद्र भगवान् ने ‘अर्जुन! तुम्हारा मुझमें अत्यन्त प्रेम है, इसी से मैं ये सब बातें तुम्हारे हित के लिये कह रहा हूँ’ ऐसा कहकर अपना जो अलौकिक प्रभाव सुनाया है, उसे सुनकर अर्जुन के हृदय में कृतज्ञता, सुख और प्रेम की तरंगें उछलने लगीं। उन्होंने सोचा, ‘अहा! इन सर्वलोकमहेश्वर भगवान् की मुझ तुच्छ पर कितनी कृपा है, जो ये मुझ क्षुद्र को अपना प्रेमी मान रहे हैं और मेरे सामने अपने महत्त्व की कैसी-कैसी गोपनीय बातें खुले शब्दों में प्रकट करते ही जा रहे हैं।’ अब तो उन्हें महर्षियों की कही हुई बातों का स्मरण हो आया और उन्होंने परम विश्वास के साथ भगवान् का गुणगान करते हुए पुनः योगशक्ति और विभूतियों का विस्तार सुनाने के लिये प्रेमभरी प्रार्थना की-भगवान् ने प्रार्थना सुनी और अपनी विभूतियों तथा योग का संक्षिप्त वर्णन सुनाया। अर्जन के हृदय पर भगवत्कृपा की मुहर लग गयी। वे भगवत्कृपा के अपूर्व दर्शन कर आनन्दमुग्ध हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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