श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
श्रीभगवानुवाच
उत्तर - दूसरे अध्याय के उनतालीसवें श्लोक में कर्मयोग का वर्णन आरम्भ करने की प्रतिज्ञा करके भगवान् ने उस अध्याय के अन्त तक कर्म योग का भली-भाँति प्रतिपादन किया। इसके बाद तीसरे अध्याय में अर्जुन के पूछने पर कर्म करने की आवश्यकता में बहुत-सी युक्तियाँ बतलाकर तीसवें श्लोक में उन्हें भक्ति सहित कर्मयोग के अनुसार युद्ध करने के लिये आज्ञा दी और इस कर्म योग में मन को वश में करना बहुत आवश्यक समझकर अध्याय के अन्त में भी बुद्धि द्वारा मन को वश में करके कामरूप शत्रु को मारने के लिये कहा। इससे मालूम होता है कि तीसरे अध्याय के अन्त तक प्रायः कर्म योग का ही अंग-प्रत्यंगों सहित प्रतिपादन किया गया है और ‘इमम्’ पद जिसका प्रकरण चला रहा हो, उसी का वाचक होना चाहिये। अतएव यह समझना चाहिये कि यहाँ ‘इमम्’ विशेषण के सहित ‘योगम्’ पद ‘कर्मयोग’ का ही वाचक है। इसके सिवा इस योग की परम्परा बतलाते हुए भगवान् ने यहाँ जिन ‘सूर्य’ और ‘मनु’ आदि के नाम गिनाये हैं, वे सब गृहस्थ और कर्मयोगी ही हैं तथा आगे इस अध्याय के पंद्रहवें श्लोक में भूतकालीन मुमुक्षुओं का उदाहरण देकर भी भगवान् ने अर्जुन को कर्म करने के लिये आज्ञा दी है, इससे भी यहाँ ‘इमम्’ विशेषण के सहित ‘योगम्’ पद को कर्मयोग का ही वाचक मानना उपयुक्त मालूम होता है। प्रश्न- तीसरे अध्याय के अन्त में भगवान् ने ‘आत्मानम् आत्मना संस्तभ्य’- आत्मा के द्वारा आत्मा को निरुद्ध करके - इस कथन से मानो समाधिस्थ होने के लिये कहा है और ‘युज समाधौ’ के अनुसार ‘योग’ शब्द का अर्थ भी समाधि होता ही है; अतः यहाँ योग का अर्थ मन-इन्द्रियों का संयम करके समाधिस्थ हो जाना मान लिया जाय तो क्या हानि है? उत्तर - वहाँ भगवान् ने आत्मा के द्वारा आत्मा को निरुद्ध करके अर्थात् बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके कामरूप दुर्जय शत्रु का नाश करने के लिये आज्ञा दी है। कर्म योग में निष्काम भाव ही मुख्य है, वह काम का नाश करने से ही सिद्ध हो सकता है तथा मन और इन्द्रियों को वश में करना कर्मयोगी के लिये परमावश्यक माना गया है।[1] अतएव बुद्धि के द्वारा मन-इन्द्रियों को वश में करना और काम को मारना- ये सब कर्म योग के ही अंग हैं और उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर के अनुसार वहाँ भगवान् का कहना कर्मयोग का साधन करने के लिये ही है, इसलिये यहाँ योग का अर्थ हठयोग या समाधियोग न मानकर कर्मयोग ही मानना चाहिये। प्रश्न- इस योग को मैंने सूर्य से कहा था, सूर्य ने मनु से कहा और मनु ने इक्ष्वाकु से कहा- यहाँ इस बात के कहने का क्या उद्देश्य है? उत्तर- मालूम होता है कि इस योग की परम्परा बतलाने के लिये एवं यह योग सब से प्रथम इस लोक में क्षत्रियों को प्राप्त हुआ था- यह दिखलाने तथा कर्मयोग की अनादिता सिद्ध करने के लिये ही भगवान् ने ऐसा कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2/64
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज