श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले और दूसरे श्लोकों में कर्मयोग की परम्परा बतलाकर तीसरे में उसकी प्रशंसा की गयी है। चौथे में अर्जुन ने भगवान् से जन्म विषयक प्रश्न किया है, इस पर भगवान् ने पाँचवे में अपने और अर्जुन के बहुत जन्म होने की बात और उन सबको मैं जानता हूँ तू नहीं जानता यह बात कहकर छठे, सातवें और आठवें में अपने अवतार के तत्त्व, रहस्य, समय और निमित्तों का वर्णन किया है। नवें और दसवें में भगवान् के जन्म-कर्मों को दिव्य समझने का और भगवान् के आश्रित होने का फल भगवान् की प्राप्ति बतलाया गया है। ग्यारहवें में भगवान् ने अपना भजन करने वाले को उसी प्रकार भजने की बात कही है। बारहवें में अन्य देवताओं की उपासना का लौकिक फल शीघ्र प्राप्त होने का वर्णन किया है। तेरहवें और चौदहवें में भगवान् ने अपने को समस्त जगत् का कर्ता होते हुए भी अकर्ता समझने के लिये कहकर अपने कर्मों की दिव्यता और उसके जानने का फल कर्मों से न बँधना बतलाते हुए पंद्रहवें में भूतकालीन मुमुक्षुओं का उदाहरण देकर अर्जुन को निष्काम भाव से कर्म करने की आज्ञा दी है। सोलहवें से अठाहरवें तक कर्मों का रहस्य बतलाने की प्रतिज्ञा करके कर्मों के तत्त्व को दुर्विज्ञेय और उसे जानना आवश्यक बतलाकर कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले की प्रशंसा की है और उन्नीसवें से तेईसवें तक कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म दर्शन करने वाले महापुरुषों के और साधकों के भिन्न-भिन्न लक्षण और आचरणों का वर्णन करते हुए उनकी प्रशंसा की है। चौबीसवें से तीसवें तक ब्रह्मयज्ञ, दैवयज्ञ, और अभेद दर्शन रूप यज्ञ आदि यज्ञों का वर्णन करके सभी यज्ञकर्ताओं को यज्ञवेत्ता और निष्पाप बतलाया है तथा इकतीसवें में उन यज्ञों से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले का सनातन ब्रह्म की प्राप्ति होने की और यज्ञ न करने वाले के लिये दोनों लोकों में सुख न होने की बात कही गयी है। बत्तीसवें में उपर्युक्त प्रकार के सभी यज्ञों को क्रिया द्वारा सम्पादित होने योग्य बतलाकर तैंतीसवें में द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ को उत्तम बतलाया है। चौंतीसवें और पैतीसवें में अर्जुन को ज्ञानी महात्माओं के पास जाकर तत्त्वज्ञान सीखने की बात कहकर तत्त्वज्ञान की प्रशंसा की है। छत्तीसवें में ज्ञान नौका द्वारा पाप समुद्र से पार होना बतलाया है। सैंतीसवें में ज्ञान को अग्नि की भाँति कर्मों को भस्म करने वाला बतलाकर, अड़तीसवें में ज्ञान की महान् पवित्रता का वर्णन करते हुए शुद्धान्तःकरण कर्मयोगी को अपने-आप तत्त्वज्ञान के मिलने की बात कही है। उनतालीसवें में श्रद्धादि गुणों से युक्त पुरुष को ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी और ज्ञान का फल परमशान्ति बतलाकर चालीसवें में अज्ञ और अश्रद्धालु संशयात्मा पुरुष की निन्दा करते हुए इकतालीसवें में संशय रहित कर्मयोगी के कर्मबन्धन से मुक्त होने की बता कही है और बयालीसवें में अर्जुन को ज्ञानखड्ग द्वारा अज्ञानजनित संशय का सर्वथा नाश करके कर्मयोग में डटे रहने के लिये आज्ञा देते हुए युद्ध करने की प्रेरणा करके इस अध्याय का उपसंहार किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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