श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले श्लोक में कर्मयोगी की प्रशंसा की गयी है। दूसरे में ‘संन्यास’ और ‘कर्मयोग’ की एकता का प्रतिपादन करके, तीसरे में कर्मयोग के साधन का वर्णन है। चौथे में योगारूढ पुरुष के लक्षण बतलाकर, पाँचवें में पूर्वोक्त मनुष्य को योगारूढावस्था प्राप्त करने के लिये उत्साहित करके उसके कर्तव्य का निरूपण किया गया है। छठे में ‘आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है’, इस पूर्वोक्त बात का रहस्य खोलकर, सातवें में शरीर, मन, इन्द्रियों के जीतने का फल बतलाया गया है। आठवें और नवें में परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षणों का और महत्त्व का वर्णन है। दसवें में ध्यानयोग के लिये प्रेरणा करके फिर ग्यारहवें से चौदहवें तक क्रमशः स्थान, आसन और ध्यानयोग की विधि का निरूपण किया गया है। पंद्रहवें में ध्यानयोग का फल बतलाकर, सोलहवें और सत्रहवें में ध्यानयोग के उपयुक्त आहार-विहार तथा शयनादि के नियम और उनका फल बतलाया गया है। अठारहवें में ध्यानयोग की अन्तिम स्थिति को प्राप्त हुए पुरुष के लक्ष बतलाकर, उन्नीसवें में दीपक के दृष्टान्त से योगी के चित्त की स्थिति का वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् बीसवें से बाईसवें तक ध्यानयोग के द्वारा परमात्मा को प्राप्त पुरुष की स्थिति का वर्णन करके, तेईसवें में उस स्थिति का नाम ‘योग’ बतलाकर, उसे प्राप्त करने के लिये प्रेरणा की गयी है। चौबीसवें और पचीसवें में अभेदरूप से परमात्मा के ध्यानयोग के साधन की प्रणाली बतलाकर, छब्बीसवें में विषयों में विचरने वाले मन को बार-बार खींच-खींचकर परमात्मा में लगाने की प्रेरणा की गयी है। सत्ताईसवें और अट्ठाइसवें में ध्यानयोग के फलस्वरूप ‘आत्यन्तिक सुख’ की प्राप्ति बतलायी गयी है। उनतीसवें में सांख्ययोगी के व्यवहारकाल की स्थिति बतलाकर, तीसवें में भक्तियोग का साधन करने वाले योगी की अन्तिम स्थिति का और उसके सर्वत्र भगवद्दर्शन का वर्णन किया गया है। इकतीसवें में भक्ति द्वारा भगवान् को प्राप्त हुए तथा बत्तीसवें में सांख्ययोग द्वारा परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुषों के लक्षण और महत्त्व का निरूपण किया गया है। तैंतीसवें में अर्जुन ने मन की चंचलता के कारण समत्वयोग की स्थिरता को कठिन बतलाकर चौंतीसवें में मन के निग्रह को भी अत्यन्त कठिन बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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