अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- इस अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ने संन्यास और त्याग का तत्त्व अलग-अलग जानने की इच्छा प्रकट की थी, अतः दोनों का तत्त्व समझाने के लिये पहले इस विषय पर विद्वानों की सम्मति बतलाकर चौथे से बारहवें श्लोक तक भगवान् ने अपने मत के अनुसार त्याग और त्यागी के लक्षण बतलाये। तदनन्तर तेरहवें से सत्रहवें श्लोक तक संन्यास (सांख्य)- के स्वरूप का निरूपण करके संन्यास में सहायक सत्त्वगुण का ग्रहण और उसके विरोधी रज एवं तम का त्याग कराने के उद्देश्य से अठारहवें से चालीसवें श्लोक तक गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता आदि मुख्य-मुख्य पदार्थों के भेद समझाये और अन्त में समस्त सृष्टि को गुणों से युक्त बतलाकर उस विषय का उपसंहार किया। वहाँ त्याग का स्वरूप बतलाते समय भगवान् ने यह बात कही थी कि नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है[1] अपितु नियत कर्मों को आसक्ति और फल के त्यागपूर्वक करते रहना ही वास्तविक त्याग है[2], किंतु वहाँ यह बात नहीं बतलायी कि किसके लिये कौन-सा कर्म नियत है। अतएव अब संक्षेप में नियत कर्मों का स्वरूप, त्याग के नाम से वर्णित कर्मयोग में भक्ति का सहयोग और उसका फल परम सिद्धि की प्रप्ति बतलाने के लिये पुनः उसी त्यागरूप कर्मयोग का प्रकरण आरम्भ करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के स्वभाविक नियत कर्म बतलाने की प्रस्तावना करते हैं-
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै: ।। 41 ।।
हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शुद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं ।। 41 ।।
प्रश्न- ‘ब्राह्मणक्षत्रियविशाम्’ इस पद में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीन शब्दों का समास करने का तथा ‘शूद्राणाम्’ पद से शूद्रों को अलग करके कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीनों ही द्विज हैं। तीनों का ही यज्ञोपवीत धारणपूर्वक वेदाध्ययन में और यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार है; इसी हेतु से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीनों शब्दों का समास किया गया है। शूद्र द्विज नहीं हैं, अतएव उनका यज्ञोपवीत धारण में तथा वेदाध्ययन में यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार नहीं है- यह भाव दिखलाने के लिये ‘शूद्राणाम्’ पद से उनको अलग कहा गया है।
|