श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- प्राणियों के जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए कर्मों के जो संस्कार हैं, उनका नाम स्वभाव है; उस स्वभाव के अनुरूप ही प्राणियों के अन्तःकरण-में सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, यह भाव दिखलाने के लिये ‘गुणैः’ पद के साथ ‘स्वभावप्रभवैः’ विशेषण दिया गया है। तथा गुणों के द्वारा चारों वर्णों के कर्मों का विभाग किया गया है, इस कथन का यह भाव है कि उन गुणवृत्तियों के अनुसार ही ब्राह्मण आदि वर्णों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं; इस कारण उन गुणों की अपेक्षा से ही शास्त्र में चारों वर्णों के कर्मों का विभाग किया गया है। जिसके स्वभाव में केवल सत्त्वगुण अधिक होता है, वह ब्राह्मण होता है; इस कारण उसके स्वभाविक कर्म शम-दमादि बतलाये गये हैं। जिसके स्वभाव में सत्त्वमिश्रित रजोगुण अधिक होता है, वह क्षत्रिय होता है, इस कारण उस के स्वभाविक कर्म शूरवीरता, तेज आदि बतलाये गये हैं। जिसके स्वभाव में तमोमिश्रित रजोगुण अधिक होता है, वह वैश्य होता है; इसलिये उसके स्वभाविक कर्म कृषि, गोरक्षा आदि बतलाये गये हैं और जिसके स्वभाव में रजोमिश्रित तमोगुण प्रधान होता है, वह शूद्र होता है; इस कारण उसका स्वभाविक कर्म तीनों वर्णों की सेवा करना बतलाया गया है। यही बात चौथे अध्याय के तेरहवें श्लोक की व्याख्या में विस्तारपूर्वक समझायी गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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