श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्दश अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले और दूसरे श्लोकों में आगे कहे जाने वाले ज्ञान की महिमा और उसके कहने की प्रतिज्ञा की गयी है। तीसरे और चौथे में प्रकृति और पुरुष के सम्बन्ध से सब प्राणियों की उत्पत्ति का प्रकार बतलाकर पाँचवें में सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों को जीवात्मा के बन्धन में हेतु बतलाया है। छठे से आठवें तक सत्त्व आदि तीनों गुणों का स्वरूप और उनके द्वारा जीवात्मा के बाँधे जाने का प्रकार क्रम से बतलाया गया है। नवें में जीवात्मा को कौन गुण किसमें लगाता है- इसका संकेत करके तथा दसवें में दूसरे दो गुणों को दबाकर किसी एक गुण के बढ़ने का प्रकार बतलाते हुए ग्यारहवें से तेरहवें तक बढ़े हुए सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के क्रम से लक्षण बतलाये गये हैं। चौदहवें और पंद्रहवें में तीनों गुणों में से प्रत्येक गुण की वृद्धि के समय मरने वाले की गति का निरूपण करके सोलहवें में सात्त्विक, राजस और तामस- तीनों प्रकार के कर्मों का उनके अनुरूप फल बतलाया गया है। सत्रहवें में ज्ञान की उत्पत्ति में सत्त्वगुण को, लोभ की उत्पत्ति में रजोगुण को तथा प्रमाद, मोह और अज्ञान की उत्पत्ति में तमोगुण को हेतु बतलाकर अठारहवें में तीनों गुणों में से प्रत्येक में स्थित जीवात्मा की उन गुणों के अनुरूप ही गति बतलायी गयी है। उन्नीसवें और बीसवें में समस्त कर्मों को गुणों के द्वारा किये जाते हुए और आत्मा को सब गुणों से अतीत एवं अकर्ता देखने का तथा तीनों गुणों से अतीत होने का फल बतलाया गया है। इक्कीसवें में अर्जुन ने गुणातीत पुरुष के लक्षण, आचरण और गुणातीत होने के लिये उपाय पूछा है; इसके उत्तर में बाईसवें से पचीसवें तक भगवान् ने गुणातीत के लक्षण और आचरणों का एवं छब्बीसवें में गुणों से अतीत होने के उपाय का और उसके फल का वर्णन किया है। तदन्तर अन्तिम सत्ताईसवें श्लोक में ब्रह्म, अमृत, अव्यय आदि सब भगवान् के ही स्वरूप होने से अपने को (भगवान् को) इन सबकी प्रतिष्ठा बतलाकर अध्याय का उपसंहार किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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