प्रथम अध्याय
सम्बन्ध- द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन ने जो कुछ कहा, अब उसे बतलाते हैं-
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।। 3 ।।
हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये।। 3 ।।
प्रश्न - धृष्टद्युम्न द्रुपद का पुत्र है, आपका शिष्य है और बुद्धिमान् है- दुर्योधन ने ऐसा किस अभिप्राय से कहा?
उत्तर - दुर्योधन बड़े चतुर कूटनीतिज्ञ थे। धृष्टद्युम्न के प्रति प्रतिहिंसा तथा पाण्डवों के प्रति द्रोणाचार्य की बुरी भावना उत्पन्न करके उन्हें विशेष उत्तेजित करने के लिये दुर्योधन ने धृष्टद्युम्न को द्रुपदपुत्र और ‘आपका बुद्धिमान् शिष्य’ कहा। इन शब्दों के द्वारा वह उन्हें इस प्रकार समझा रहे हैं कि देखिये, द्रुपद ने आपके साथ पहले बुरा बर्ताव किया था और फिर उसने आपका वध करने के उद्देश्य से ही यज्ञ करके धृष्टद्युम्न को पुत्ररूप से प्राप्त किया था। धृष्टद्युम्न इतना कूटनीतिज्ञ है और आप इतने सरल हैं कि आपको मारने के लिये पैदा होकर भी उसने आपके ही द्वारा धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त कर ली। फिर इस समय भी उसकी बुद्धिमानी देखिये कि उसने आप लोगों को छकाने के लिये कैसी सुन्दर व्यूहरचना की है। ऐसे पुरुष को पाण्डवों ने अपना प्रधान सेनापति बनाया है। अब आप ही विचारिये कि आपका क्या कर्तव्य है।
प्रश्न - कौरव-सेना ग्यारह अक्षौहिणी थी और पाण्डव-सेना केवल सात ही अक्षौहिणी थी; फिर दुर्योधन ने उसको बड़ी भारी (महती) क्यों कहा और उसे देखने के लिये आचार्य से क्यों अनुरोध किया?
उत्तर - संख्या में कम होने पर भी वज्रव्यूह के कारण पाण्डव-सेना बहुत बड़ी मालूम होती थी; दूसरी यह बात भी है कि संख्या में अपेक्षाकृत स्वल्प होने पर भी जिसमें पूर्ण सुव्यवस्था होती है, वह सेना विशेष शक्तिशालिनी समझी जाती है। इसीलिये दुर्योधन कह रहे हैं कि आप इस व्यूहाकार खड़ी की हुई सुव्यवस्थित महती सेना को देखिये और ऐसा उपाय सोचिये जिससे हम लोग विजयी हों।
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