श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
सञ्जय उवाच
उत्तर- इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि श्रीकृष्ण के उस घोर रूप को देखकर अर्जुन इतने व्याकुल हो गये कि भगवान् के इस प्रकार आश्वासन देने पर भी उनका डर दूर नहीं हुआ; इसलिये वे डर के मारे काँपते हुए भी भगवान् से उस रूप का संवरण करने के लिये प्रार्थना करने लगे। प्रश्न- अर्जुन का नाम ‘किरीटी’ क्यों पड़ा था? उत्तर- अर्जुन के मस्तक पर देवराज इन्द्र का दिया हुआ सूर्य के समान प्रकाशमय दिव्य मुकुट सदा रहता था, इसी से उनका एक नाम ‘किरीटी’[1] पड़ गया था। प्रश्न- ‘कृतान्जलिः’ विशेषण देकर पुनः उसी अर्थ के वाचक ‘नमस्कृत्वा’ और ‘प्रणम्य’ इन दो पदों के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- ‘कृतान्जलिः’ विशेषण देकर और उक्त दोनों पदों का प्रयोग करके संजय ने यह भाव दिखलाया है कि भगवान् के अनन्त ऐश्वर्यमय स्वरूप को देखकर उस स्वरूप के प्रति अर्जुन की बड़ी सम्मान्य दृष्टि हो गयी थी और वे डरे हुए थे ही। इसी से वे हाथ जोड़े हुए बार-बार भगवान् को नमस्कार और प्रणाम करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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पुरा शक्रेण में दत्तं युध्यतो दानवर्षभैः।
किरीटं मूर्ध्नि सूर्याभं तेनाहुर्मां किरीटिनम्।। (महा., विराट., 44। 17)विराटपुत्र उत्तरकुमार से अर्जुन कहते हैं- पूर्वकाल में जिस समय मैंने बड़े भारी वीर दानवों से युद्ध किया था, उस समय इन्द्र ने प्रसन्न होकर सूर्य के समान प्रकाशयुक्त किरीट मेरे मस्तक पर पहना दिया था; इसी से लोग मुझे ‘किरीटी’ कहते हैं।
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