श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- युद्ध में होने वाले जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख में किसी तरह की भेदबुद्धि का न होना अर्थात् उनके कारण मन में राग-द्वेष या हर्ष-शोक आदि किसी प्रकार के विकारों का न होना ही उन सबको समान समझना है। प्रश्न- उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा इस वाक्य का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि तुमको राज्यसुख और स्वर्ग की इच्छा नहीं है तो युद्ध में होने वाले विषमभाव का सर्वथा त्याग करके उपर्युक्त प्रकार से युद्ध के प्रत्येक परिणाम में सम होकर उसके बाद तुम्हें युद्ध करना चाहिये। ऐसा युद्ध सदा रहने वाली परमशान्ति को देने वाला है। प्रश्न- ‘इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा’ इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इस वाक्य से भगवान् ने अर्जुन के उन वचनों को उत्तर दिया है जिनमें अर्जुन ने युद्ध में स्वजनवध को महान् पापकर्म बतलाया है और ऐसा बतलाकर युद्ध न करना ही उचित सिद्ध किया है।[1] अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त प्रकार से युद्ध करने पर तुम्हें किसी प्रकार का किंचिन्मात्र भी पाप नहीं लगेगा अर्थात् तू शुभाशुभ कर्मबन्धनरूप पाप से भी सर्वथा मुक्त हो जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1। 36, 39, 45
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