द्वादश अध्याय
प्रश्न- यहाँ ‘पर्युपासते’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- भलीभाँति तत्पर होकर निष्काम प्रेमभाव से इन उपर्युक्त लक्षणों का श्रद्धापूर्वक सदा-सर्वदा सेवन करना, यही ‘पर्युपासते’ का अभिप्राय है।
प्रश्न- पहले सात श्लोकों में भगवत्प्राप्त सिद्ध भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते हुए उनको तो भगवान् ने अपना ‘प्रिय भक्त’ बतलाया और इस श्लोक में जो सिद्ध नहीं है, परन्तु इन लक्षणों की उपासना करने वाले साधक भक्त हैं- उनको ‘अतिशय प्रिय’ कहा, इसमें क्या रहस्य है?
उत्तर- जिन सिद्ध भक्तों को भगवान् की प्राप्ति हो चुकी है, उनमें तो उपर्युक्त लक्षण स्वाभाविक ही रहते हैं और भगवान् के साथ उनका नित्य तादात्म्य-सम्बन्ध हो जाता है। इसलिये उनमें इन गुणों का होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। परंतु जिन एकनिष्ठ साधकों भक्तों को भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुए हैं तो भी वे भगवान् पर विश्वास करके परम श्रद्धा के साथ तन, मन, धन, सर्वस्व भगवान् को अर्पण करके उन्हीं के परायण हो जाता हैं तथा भगवान् के दर्शनों के लिये निरन्तर उन्हीं का निष्काम भाव से प्रेमपूर्वक चिन्तन करते रहते हैं और सतत चेष्टा करके उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार ही अपना जीवन बिताना चाहते हैं- बिना प्रत्यक्ष दर्शन हुए भी केवल विश्वास पर उनका इतना निर्भर हो जाना विशेष महत्त्व की बात है। इसलिये भगवान् को वे विशेष प्रिय होते हैं। ऐसे प्रेमी भक्तों को भगवान् अपना नित्य संग प्रदान करके जब तक सन्तुष्ट नहीं कर देते तब तक वे उसके ऋणी ही बने रहते हैं- ऐसी भगवान् की मान्यता है। अतएव भगवान् का उन्हें सिद्ध भक्तों की अपेक्षा भी ‘अतिशय प्रिय’ कहना उचित ही है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्ययां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्याय:।। 12 ।।
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