श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
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दशम अध्याय
सम्बन्ध- उपर्युक्त प्रकार से भजन करने वाले भक्तों के प्रति भगवान् क्या करते हैं, अगले दो श्लोकों में यह बतलाते हैं- तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
उत्तर- पूर्व के दो श्लोकों में ‘बुधाः’ और ‘मच्चित्ताः’ आदि पदों से जिन भक्तों का वर्णन किया गया है, उन्हीं निष्काम अनन्यप्रेमी भक्तों का वाचक यहाँ ‘तेषाम्’ पद है। प्रश्न- ‘सततयुक्तानाम्’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- पूर्वश्लोक में ‘मच्चित्ताः’, ‘मद्गतप्राणाः’, ‘परस्परं मां बोधयन्तः’ और ‘कथयन्तः’ से जो बातें कही गयी हैं, उन सबका समाहार ‘सततयुक्तानाम्’ पद में किया गया है। प्रश्न- ‘प्रीतिपूर्वकं भजताम्’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- पूर्वश्लोक में ‘नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च’ में जो बात कही यगी है उसका समाहार यहाँ ‘प्रीतिपूर्वकं भजताम्’ में किया गया है। अभिप्राय यह है कि पूर्वश्लोक में भगवान् के जिन भक्तों का वर्णन हुआ है, वे भोगों की कामना के लिये भगवान् को भजने वाले नहीं हैं, किंतु किसी प्रकार का भी फल न चाहकर केवल निष्काम अनन्य प्रेमभावपूर्वक ही भगवान् का, उस श्लोक में कहे हुए प्रकार से, निरन्तर भजन करने वाले हैं।[1] प्रश्न- ऐसे भक्तों को भगवान् जो बुद्धियोग प्रदान करते हैं- वह क्या है और उससे भगवान् को प्राप्त हो जाना क्या है? उत्तर- भगवान् का जो भक्तों के अन्तःकरण में अपने प्रभाव और महत्तवादि के रहस्य सहित निर्गुण-निराकार तत्त्व को तथा लीला, रहस्य, महत्त्व और प्रभाव आदि के सहित सगुण-निराकार और साकार तत्त्व को यथार्थरूप से समझने की शक्ति प्रदान करना है- वही ‘बुद्धियोग का प्रदान करना’ है। इसी को भगवान् ने सातवें और नवें अध्याय में विज्ञानसहित ज्ञान कहा है और इस बुद्धियोग के द्वारा भगवान् को प्रत्यक्ष कर लेना ही भगवान् को प्राप्त हो जाना है। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्य्। न योगसिद्वीरपुनर्भवं वा समन्जस त्वा विरहय्य काङ्क्षे।। (श्रीमद्भागवत 6। 11। 25)
‘हे सर्वसद्गुणयुक्त! आपको त्यागकर न तो मैं स्वर्ग में सबसे ऊँचे लोक का निवास चाहता हूँ, न ब्रह्मा का पद चाहता हूँ, न समस्त पृथ्वी का राज्य, न पाताल लोक का आधिपत्य, न योग की सिद्धि-अधिक क्या मुक्ति भी नहीं चाहता।’
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