द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार मन सहित इन्द्रियों को वश में न करने वाले मनुष्य के पतन का क्रम बतलाकर अब भगवान् ‘स्थितप्रज्ञ योगी कैसे चलता है’ इस चौथे प्रश्न का उत्तर आरम्भ करते हुए पहले दो श्लोकों में जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में होते हैं, ऐसे साधक द्वारा विषयों में विचरण किये जाने का प्रकार और उसका फल बतलाते हैं-
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।। 64 ।।
परंतु अपने अधीन किये हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ।। 64 ।।
प्रश्न- ‘तु’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- पूर्वश्लोकों में जिसके मन, इन्द्रिय वश में नहीं हैं, ऐसे विषयी मनुष्य की अवनति का वर्णन किया गया और अब दो श्लोकों में उससे विलक्षण जिसके मन, इन्द्रिय वश में किये हुए हैं, ऐसे विरक्त साधक की उन्नति का वर्णन किया जाता है। इस भेद का द्योतक यहाँ ‘तु’ पद है।
प्रश्न- ‘विधेयात्मा’ पद कैसे साधक का वाचक है?
उत्तर- जिसका अन्तःकरण भली-भाँति वश में किया हुआ है, ऐसे साधक का वाचक यहाँ ‘विधेयात्मा’ पद है।
प्रश्न- ऐसे साधक का अपने वश में की हुई राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करना क्या है?
उत्तर- साधारण मनुष्यों की इन्द्रियाँ स्वतन्त्र होती हैं, उनके वश में नहीं होतीं; उन इन्द्रियों में राग-द्वेष भरे रहते हैं। इस कारण उन इन्द्रियों के वश में होकर भोगों को भोगने वाला मनुष्य उचित-अनुचित का विचार करके जिस किसी से प्रकार से भोग-सामग्रियों के संग्रह करने और भोगने की चेष्टा करता है और उन भोगों में राग-द्वेष करके सुखी-दुःखी होता रहता है; उसे आध्यात्मिक सुख का अनुभव नहीं होता; किंतु उपर्युक्त साधक की इन्द्रियाँ उसके वश में होती हैं और उनमें राग-द्वेष का अभाव होता है- इस कारण वह अपने वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार योग्यता से प्राप्त हुए भोगों में बिना राग-द्वेष के विचरण करता है; उसका देखना-सुनना, खाना-पीना, उठना-बैठना, बोलना-बतलाना, चलना-फिरना और सोना-जागना आदि समस्त इन्द्रियों के व्यवहार नियमित और शास्त्र-विहित होते हैं; उसकी सभी क्रियाओं में राग-द्वेष, काम-क्रोध और लोभ आदि विकारों का अभाव होता है। यही उसका अपने वश में की हुई राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करना है।
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