श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- दोनों में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वहाँ उनसठवें श्लोक में तो राग-द्वेष का अत्यन्त अभाव बताया गया है और यहाँ राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषय सेवन की बात कहकर राग-द्वेष के सर्वथा अभाव की साधना बतायी गयी है। तीसरे अध्याय के चालीसवें श्लोक में इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- तीनों को ही काम का अधिष्ठान बताया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इन्द्रियों में राग-द्वेष न रहने पर भी मन या बुद्धि में सूक्ष्म रूप से राग-द्वेष रह सकते हैं। परंतु उनसठवें श्लोक में ‘अस्य’ पद का प्रयोग करके स्थिरबुद्धि पुरुष में राग-द्वेष का सर्वथा अभाव बताया गया है। वहाँ केवल इन्द्रियों में ही राग-द्वेष के अभाव की बात नहीं है। प्रश्न- इन्द्रियों से विषयों का संयोग न होने देना यानी बाहर से विषयों का त्याग, इन्द्रियों का संयम और इन्द्रियों का राग-द्वेष से रहित हो जाना- इन तीनों में श्रेष्ठ और भगवत्प्राप्ति में विशेष सहायक कौन है? उत्तर- तीनों ही भगवान् की प्राप्ति में सहायक हैं, किंतु इसमें बाह्य विषय-त्याग की अपेक्षा इन्द्रिय संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा इन्द्रियों का राग-द्वेष से रहित होना विशेष उपयोगी और श्रेष्ठ है। यद्यपि बाह्य विषयों का त्याग भी भगवान् की प्राप्ति में सहायक है, परंतु जब तक इन्द्रियों का संयम और राग-द्वेष का त्याग न हो तो तब तक केवल बाह्य विषयों के त्याग से विषयों की पूर्ण निवृत्ति नहीं हो सकती और न कोई सिद्धि ही प्राप्त होती है तथा ऐसी बात भी नहीं है कि बाह्य विषय का त्याग किये बिना इन्द्रिय संयम हो ही नहीं सकता; क्योंकि भगवान् की पूजा, सेवा, जप और विवेक, वैराग्य आदि दूसरे उपायों से सहज ही इन्द्रिय संयम हो जाता है एवं इन्द्रिय संयम हो जाने पर अनायास ही विषयों का त्याग किया जा सकता है। इन्द्रियाँ जिस के वश में हैं, वह चाहे जब, चाहे जिस विषय का त्याग कर सकता है। इसलिये बाह्य विषयत्याग की अपेक्षा इन्द्रिय संयम श्रेष्ठ है। इस प्रकार इन्द्रिय संयम भी भगवत्प्राप्ति में सहायक है; परंतु इन्द्रियों के राग-द्वेष का त्याग हुए बिना केवल इन्द्रिय संयम से विषयों की पूर्णतया निवृत्ति होकर वास्तव में परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती और ऐसी बात भी नहीं है कि बाह्म विषयत्याग तथा इन्द्रियसंयम हुए बिना इन्द्रियों के राग-द्वेष का त्याग हो ही न सकता हो। सत्संग, स्वाध्याय और विचार द्वारा सांसारिक भोगों की अनित्यता का भान होने से तथा ईश्वरकृपा और भजन-ध्यान आदि से राग-द्वेष का नाश हो सकता है और जिसके इन्द्रियों के राग-द्वेष का नाश हो गया है। उसके लिए बाह्य विषयों का त्याग और इन्द्रिय संयम अनायास अपने-आप ही होता है। जिसका इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष नहीं है, वह पुरुष यदि बाह्यरूप से विषयों का त्याग न करें तो विषयों में विचरण करता हुआ ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है; इसलिये इन्द्रियों का राग-द्वेष से रहित होना विषयों के त्याग और इन्द्रिय संयम से भी श्रेष्ठ है। प्रश्न- ‘प्रसादम्’ पद यहाँ किसका वाचक है? उत्तर- वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा बिना राग-द्वेष के व्यवहार करने से साधक का अन्तःकरण शुद्ध और स्वच्छ हो जाता है, इस कारण उसमें आध्यात्मिक सुख और शान्ति का अनुभव होता है[1]; उस सुख और शान्ति का वाचक यहाँ ‘प्रसादम्’ पद है। इस सुख और शान्ति के हेतु रूप अन्तःकरण की पवित्रता को और भगवान के अर्पण की हुई वस्तु अन्तःकरण को पवित्र करने वाली होती है, इस कारण उसको भी प्रसाद कहते हैं; परंतु अगले श्लोक में उपर्युक्त पुरुष के लिये ‘प्रसन्नचेतसः’ पद का प्रयोग किया गया है, अतः यहाँ ‘प्रसादम्’ पद का अर्थ अन्तःकरण की आध्यात्मिक प्रसन्नता मानना ही ठीक मालूम होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18। 37
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