द्वितीय अध्याय
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। 63 ।।
क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।। 63 ।।
प्रश्न- क्रोध से उत्पन्न होने वाले अत्यन्त मूढ़भाव का क्या स्वरूप है?
उत्तर- जिस समय मनुष्य के अन्तःकरण में क्रोध की वृत्ति जाग्रत् होती है, उस समय उसके अन्तःकरण में विवेकशक्ति का अत्यन्त अभाव हो जाता है। वह कुछ भी आगा-पीछा नहीं सोच सकता; क्रोध के वश में होकर जिस कार्य में प्रवृत्त होता है उसके परिणाम का उसको कुछ भी ख्याल नहीं रहता। यही क्रोध से उत्पन्न सम्मोह का अर्थात् अत्यन्त मूढ़भाव का स्वरूप है।
प्रश्न- सम्मोह से उत्पन्न होने वाले ‘स्मृतिविभ्रम’ का क्या स्वरूप है?
उत्तर- जब क्रोध के कारण मनुष्य के अन्तःकरण में मूढ़भाव बढ़ जाता है तब उसकी स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, उसे यह ध्यान नहीं रहता कि किस मनुष्य के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? मुझे क्या करना चाहिये? क्या न करना चाहिये? मैंने अमुक कार्य किस प्रकार करने का निश्चय किया था और अब क्या कर रहा हूँ इसलिये पहले सोची-विचारी हुई बातों को वह काम में नहीं ला सकता, उसकी स्मृति छिन्न-भिन्न हो जाती है। यही सम्मोह से उत्पन्न हुए स्मृतिविभ्रम का स्वरूप है।
प्रश्न- स्मृतिविभ्रम से बुद्धि का नष्ट हो जाना और उस बुद्धि नाश से मनुष्य का अपनी स्थिति से गिर जाना क्या है?
उत्तर- उपर्युक्त प्रकार से स्मृति में विभ्रम होने से अन्तःकरण में किसी कर्तव्य-अकर्तव्य का निश्चय करने की शक्ति का न रहना ही बुद्धि का नष्ट हो जाना है। ऐसा होने से मनुष्य अपने कर्तव्य का त्याग कर अकर्तव्य में प्रवृत्त हो जाता है- उसक व्यवहार में कटुता, कठोरता, कायरता, हिंसा, प्रतिहिंसा, दीनता, जडता और मूढ़ता आदि दोष आ जाते हैं। अतएव उसका पतन हो जाता है, वह शीघ्र ही अपनी पहले की स्थिति से नीचे गिर जाता है और मरने के बाद नाना प्रकार की नीच योनियों में या नरक में पड़ता है; यही बुद्धि नाश से उसका अपनी स्थिति से गिर जाना है।
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