श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
प्रश्न- ‘सर्वत्र अनभिस्नेहः’ का क्या भाव है? उत्तर- इससे स्थिर बुद्धि योगी में अभि स्नेह का अर्थात् ममतापूर्वक होने वाली सांसारिक आसक्ति का सर्वथा अभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सांसारिक मनुष्य अपने स्त्री, पुत्र, भाई, मित्र और कुटुम्ब वालों में ममता और आसक्ति रखते हैं, दिन-रात उनमें मोहित हुए रहते हैं तथा उनके हरेक वचन में उस मोह युक्त स्नेह के भाव टपकते रहते हैं, स्थिर बुद्धि योगी में ऐसा नहीं होता। उसका किसी भी प्राणी में ममता और आसक्तियुक्त प्रेम नहीं रहता। इसलिये उसकी वाणी भी ममता और आसक्ति के दोष से सर्वथा रहित, शुद्ध प्रेममयी होती है। आसक्ति ही काम-क्रोध आदि सारे विकारों की मूल है। इसलिये आसक्ति के अभाव से अन्य सारे विकारों का अभाव समझ लेना चाहिये। प्रश्न- ‘शुभाशुभम्’ पद किसका वाचक है तथा उसके साथ ‘तत्’ पद का दो बार प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया है? उत्तर- जिनको प्रिय और अप्रिय तथा अनुकूल और प्रतिकूल कहते हैं, उन्हीं का वाचक यहाँ ‘शुभाशुभम्’ पद है। वास्तव में स्थिरबुद्धि योगी का संसार की किसी भी वस्तु में अनुकूल या प्रतिकूल भाव नहीं रहता; केवल व्यावहारिक दृष्टि से जो उसके मन, इन्द्रिय और शरीर के अनुकूल दिखलायी देती हो उसे शुभ और जो प्रतिकूल दिखलायी देती हो उसे अशुभ बतलाने के लिये यहाँ ‘शुभाशुभम्’ पद दिया गया है। इसके साथ ‘तत्’ पद का दो बार प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि ऐसी अनुकूल और प्रतिकूल वस्तुएँ अनन्त हैं, उनमें से जिस-जिस वस्तु के साथ उस योगी का संयोग होता है, उस-उसके संयोग में उसका कैसा भाव रहता है - यही यहाँ बतलाया गया है। प्रश्न- ‘न अभिनन्दति’ का क्या भाव है? उत्तर - इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त शुभा शुभ वस्तुओं में से किसी भी शुभ अर्थात् अनुकूल वस्तु का संयोग होने पर साधारण मनुष्यों के अन्तःकरण में बड़ा हर्ष होता है, अतएव वे हर्ष में मग्न होकर वाणी द्वारा बड़ी प्रसन्नता प्रकट करते हैं और उस वस्तु की स्तुति किया करते हैं; किंतु स्थिर बुद्धि योगी का अत्यन्त अनुकूल वस्तु के साथ संयोग होने पर भी उसके अन्तःकरण में किंचिन्मात्र भी हर्ष का विकार नहीं होता।[1] इस कारण उसकी वाणी भी हर्ष के विकार से सर्वथा शून्य होती है, वह किसी भी अनुकूल वस्तु या प्राणी की हर्ष गर्भित स्तुति नहीं करता। यदि उसके शरीर या वाणी द्वारा लोक संग्रह के लिये कोई हर्ष का भाव प्रकट किया जाता है या स्तुति की जाती है तो वह हर्ष का विकार नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5। 20
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