द्वितीय अध्याय
प्रश्न- ‘वीतरागभयक्रोधः’ का क्या भाव है?
उत्तर- इससे स्थिरबुद्धि योगी के अन्तःकरण और वाणी में आसक्ति, भय और क्रोध का सर्वथा अभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि किसी भी स्थिति में किसी भी घटना से उसके अन्तःकरण में न तो किसी प्रकार की आसक्ति उत्पन्न हो सकती है, न किसी प्रकार का जरा भी भय हो सकता है और न क्रोध ही हो सकता है। इस कारण उसकी वाणी भी आसक्ति, भय और क्रोध के भावों से रहित शान्त और सरल होती है। लोकसंग्रह के लिये उसके शरीर या वाणी की क्रिया द्वारा आसक्ति, भय या क्रोध का भाव दिखलाया जा सकता है; पर वास्तव में उसके मन या वाणी में किसी तरह का कोई विकार नहीं रहता। केवल वाणी को उपर्युक्त समस्त विकारों से रहित करके बोलना तो किसी भी धैर्ययुक्त बुद्धिमान् पुरुष के लिये भी सम्भव है; पर उसके अन्तःकरण में विकार हुए बिना नहीं रह सकते, इस कारण यहाँ भगवान् ने ‘स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है?’ इस प्रश्न के उत्तर में उसकी वाणी की ऊपरी क्रिया न बतलाकर उसके मन के भावों का वर्णन किया है। अतः इससे यह समझना चाहिये कि स्थिर बुद्धि योगी की वाणी भी वास्तव में उसके अन्तःकरण के अनुरूप सर्वथा निर्विकार और शुद्ध होती है।
प्रश्न- ‘ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है’- इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त लक्षणों से युक्त योगी ही वास्तव में ‘मुनि’ अर्थात् वाणी का संयम करने वाला है और वही स्थिर बुद्धि है; जिसके अन्तःकरण और इन्द्रियों में विकार भरे हैं, वह वाणी का संयमी होने पर भी स्थिर बुद्धि नहीं हो सकता।
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