श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार अनुकूल वस्तु की प्राप्ति में साधारण मनुष्यों को बड़ा भारी हर्ष होता है, उसी प्रकार प्रतिकूल वस्तु के प्राप्त होने पर वे उससे द्वेष करते हैं, उनके अन्तःकरण में बड़ा क्षोभ होता है, वे उस वस्तु की द्वेषभरी निन्दा किया करते हैं; पर स्थिर बुद्धि योगी का अत्यन्त प्रतिकूल वस्तु के साथ संयोग होने पर भी उसके अन्तःकरण में किंचिन्मात्र भी द्वेष भाव नहीं उत्पन्न होता। उस वस्तु के संयोग से किसी प्रकार का जरा-सा भी उद्वेग या विकार नहीं होता। उसका अन्तःकरण हरेक वस्तु की प्राप्ति में सम, शान्त और निर्विकार रहता है।[1] इस कारण वह किसी भी प्रतिकूल वस्तु या प्राणी की द्वेषपूर्ण निन्दा नहीं करता। ऐसे महापुरुष की वाणी द्वारा यदि लोक संग्रह के लिये किसी प्राणी या वस्तु को कहीं बुरा बतलाया जाता है या उसकी निन्दा की जाती है तो वह वास्तव में निन्दा नहीं है, क्योंकि उसका किसी में भी द्वेषभाव नहीं है। प्रश्न- उसकी बुद्धि स्थिर है - इस कथन का क्या भाव है? उत्तर - इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जो महापुरुष उपर्युक्त लक्षणों से सम्पन्न हों, जिनके अन्तःकरण और इन्द्रियों में किसी भी वस्तु या प्राणी के संयोग-वियोग में किसी भी घटना से किसी प्रकार का तनिक भी विकार कभी न होता हो, उनको स्थिरबुद्धि योगी समझना चाहिये। प्रश्न- इन दो श्लोकों में बोलने की बात तो स्पष्ट रूप से कहीं नहीं आयी है; फिर यह कैसे समझा जा सकता है कि इनमें ‘वह कैसे बोलता है।’ इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है? उत्तर- यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि यहाँ साधारण बोलने की बात नहीं है। केवल वाणी की बात हो, तब तो कोई भी दम्भी या पाखण्डी मनुष्य भी रटकर अच्छी-से-अच्छी वाणी बोल सकता है। यहाँ तो यथार्थ में मन के भावों की प्रधानता है। इन दो श्लोकों में बतलाये हुए मानसिक भावों के अनुसार, इन भावों से भावित जो वाणी होती है, उसी से भगवान् का तात्पर्य है। इसीलिये इनमें वाणी की स्पष्ट बात न कहकर मानसिक भावों की बात कही गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5। 20
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