श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
उत्तर- न्यायानुकूल जमीन में बीज बोकर गेहूँ, जौ, चने, मूँग, धान, मक्की, उड़द, हल्दी, धनिया आदि समस्त खाद्य पदार्थों को, कपास और नाना प्रकार की ओषधियों को और इसी प्रकार देवता, मनुष्य और पशु आदि के उपयोग में आने वाली अन्य पवित्र वस्तुओं को उत्पन्न करने का नाम ‘कृषि’ यानी खेती करना है। प्रश्न- ‘गौरक्ष्य’ यानी ‘गौपालन’ किसको कहते हैं? उत्तर- नन्द आदि गोपों की भाँति गौओं को अपने घर में रखना; उनको जंगल में चराना, घर में भी यथावश्यक चारा देना, जल पिलाना तथा व्याघ्र आदि हिंसक जीवों से उनको बचाना; उनसे दूध, दही, घृत आदि पदार्थों को उत्पन्न करके उन पदार्थों से लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना और उसके परिवर्तन में प्राप्त धन से अपनी गृहस्थी के सहित उन गौओं का भली-भाँति न्यायपूर्वक निर्वाह करना ‘गौरक्ष्य’ यानी गोपालन है। पशुओं में ‘गौ’ प्रधान है तथा मनुष्य मात्र के लिये सबसे अधिक उपकारी पशु भी ‘गौ’ ही है; इसलिये भगवान् ने यहाँ ‘पशुपालनम्’ पद का प्रयोग न करके उसके बदले में ‘गौरक्ष्य’ पद का प्रयोग किया है। अतएव यह समझना चाहिये कि मनुष्य के उपयोगी भैंस, ऊँट, घोड़े और हाथी आदि अन्यान्य पशुओं का पालन करना भी वैश्यों का कर्म है; अवश्य ही गोपालन उन सबकी अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। प्रश्न- वाणिज्य यानी क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार क्या है? उत्तर- मनुष्यों के और देवता, पशु, पक्षी आदि अन्य समस्त प्राणियों के उपयोग में आने वाली समस्त पवित्र वस्तुओं को धर्मानुकूल खरीदना और बेचना तथा आवश्यकतानुसार उनको एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँचाकर लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना वाणिज्य यानी क्रय-विक्रयरूप व्यवहार है। वाणिज्य करते समय वसतुओं के खरीदने-बेचने में तौल-नाप और गिनती आदि से कम दे देना या अधिक ले लेना वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाकर अच्छी के बदले खराब दे देना या खराब के बदले अच्छी ले लेना; नफा, आढ़त और दलाली आदि ठहराकर उससे अधिक लेना या कम देना; इसी तरह किसी भी व्यापार में झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती का या अन्य किसी प्रकार के अन्याय का प्रयोग करके दूसरों के स्वत्व को हड़प लेना- ये सब वाणिज्य के दोष हैं। इन सब दोषों से रहित जो सत्य और न्याययुक्त पवित्र वस्तुओं का खरीदना और बेचना है, वही क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार है। तुलाधार ने इस व्यवहार से ही सिद्धि प्राप्त की थी।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ काशी में तुलाधार नाम के एक वैश्य व्यापारी थे। वे महान तपस्वी और धर्मात्मा थे। न्याय और सत्य का आश्रय लेकर क्रय-विक्रयरूप व्यापार करते थे। जाजलि नामक एक ब्राह्मण समुद्रतट पर कठिन तपस्या करते थे। उनकी जटाओं में चिड़ियों ने घोंसले बना लिये थे; इससे उनको अपनी तपस्या पर गर्व हो गया। तब आकाशवाणी हुई कि ‘हे जाजलि! तुम तुलाधार के समान धार्मिक नहीं हो, वे तुम्हारी भाँति गर्व नहीं करते।’ जाजलि काशी आये और उन्होंने देखा- ‘तुलाधार फल, मूल, मसाले घी आदि बेच रहे हैं। तुलाधार ने स्वागत, सत्कार और प्रणाम करके जाजलि से कहा- ‘आपने समुद्र के किनारे बड़ी तपस्या की है। आपके सिर की जटाओं में चिड़ियों ने बच्चे पैदा कर दिये, इससे आपको गर्व हो गया और अब आप आकाशवाणी सुनकर यहाँ पधारे हैं, बतलाइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ।’ तुलाधार का ऐसा ज्ञान देखकर जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। जाजलि ने तुलाधार से पूछा, तब उन्होंने धर्म का बहुत ही सुन्दर निरूपण किया। जाजलि ने तुलाधार मुख से धर्म का रहस्य सुनकर बड़ी शान्ति प्राप्त की। महाभारत, शान्तिपर्व में 261 से 264 अध्याय तक यह सुन्दर कथा है।
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