श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- इससे यह दिखलाया गया है कि वैश्य के स्वभाव में तमोमिश्रित रजोगुण प्रधान होता है, इस कारण उसकी उपर्युक्त कर्मों में स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। उसका स्वभाव उपर्युक्त कर्मों के अनुकूल होता है, अतएव इनके करने में उसे किसी प्रकार की कठिनता नहीं मालूम होती है। प्रश्न- मनुस्मृति में तो उपर्युक्त कर्मों के सिवा यज्ञ, अध्ययन और दान तथा व्याज लेना- ये चार कर्म वैश्य के लिये अधिक बतलाये गये हैं;[1] यहाँ उनका वर्णन क्यों नहीं किया गया? उत्तर- यहाँ वैश्य के स्वभाव से विशेष सम्बन्ध रखने वाले कर्मों का वर्णन है; यज्ञादि शुभकर्म द्विजमात्र के कर्म हैं, अतः उनको उनके स्वभाविक कर्मों में नहीं बतलाया गया है और व्याज लेना वैश्य के कर्मों में अन्य कर्मों की अपेक्षा नीचा माना गया है, इस कारण उसकी भी स्वभाविक कर्मों में गणना नहीं की गयी है। इसके सिवा शम-दमादि और भी जो मुक्ति के साधन हैं, उनमें सबका अधिकार होने के कारण वे वैश्य के स्वधर्म से अलग नहीं हैं; किन्तु उनमें वैश्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती, इस करण उसके स्वाभाविक कर्मों में उनकी गणना नहीं की गयी है। प्रश्न- ‘पारिचर्यात्मकम्’ यानी सब वर्णों की सेवा करना किसको कहते हैं? उत्तर- उपर्युक्त द्विजाति वर्णों की अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की दासवृत्ति से रहना; उनकी आज्ञाओं का पालन करना; घर में जल भर देना, स्नान करा देना, उनके जीवन-निर्वाह के कार्यों में सुविधा कर देना, दैनिक कार्य में यथायोग्य सहायता करना, उनके पशुओं का पालन करना, उनकी वस्तुओं को संभाल कर रखना, कपड़े साफ करना, क्षौरकर्म करना आदि जितने भी सेवा के कार्य हैं, उन सबको करके उनको सन्तुष्ट रखना; अथवा सबके काम में आने वाली वस्तुओं को कारीगरी के द्वारा तैयार करके उन वस्तुओं से उनकी सेवा करके अपनी जीविका चलाना-ये सब ‘परिचर्यात्मकम्’ यानी सब वर्णों की सेवा करना रूप कर्म के अन्तर्गत हैं। प्रश्न- यह शूद्र भी स्वाभाविक कर्म है, इस कथन का क्या भाव है तथा यहाँ ‘अपि’ पद का प्रयोग किस लिये किया गया है? उत्तर- शूद्र के स्वभाव में रजोमिश्रित तमोगुण प्रधान होता है, इस कारण उपर्युक्त सेवा के कार्यों में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। ये कर्म उसके स्वभाव के अनुकूल पड़ते हैं, अतएव इनके करने में उसे किसी प्रकार की कठिनता का बोध नहीं होता। यहाँ ‘अपि’ का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जैसे दूसरे वर्णों के लिये उनके अनुरूप अन्य कर्म स्वाभाविक हैं; इसी तरह शूद्र के लिये भी सेवारूप कर्म स्वाभाविक है; साथ ही यह भाव भी दिखलाया है कि शूद्र का केवल एक सेवारूप कर्म ही कर्तव्य है[2] और वही उसके लिये स्वाभाविक है, अतएव उसके लिये इसका पालन करना बहुत ही सरल है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।। (मनुस्मृति 1।90)
- ↑
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।। (मनुस्मृति 1। 91)
‘भगवान् ने शूद्र का केवल एक ही कर्म बतलाया है कि दोषदृष्टि छोड़कर पूर्वोक्त द्विज वर्ण वालों की सेवा करना।’ - ↑ आजकल ऐसी बात कही जाती है कि वर्णविभाग उच्च वर्ण के अधिकाररूढ़ लोगों की स्वार्थपूर्ण रचना है, परन्तु ध्यान देने पर पता लगता है कि समाज-शरीर को सुव्यवस्था के लिये वर्ण धर्म बहुत ही आवश्यक है और यह मनुष्य की रचना है भी नहीं। वर्णधर्म भगवान् के द्वारा रचित है। स्वयं भगवान् ने कहा है- ‘चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।’ (4। 13)
‘गुण और कर्मों के विभाग से चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मेरे ही द्वारा रचे हुए हैं। भारत के दिव्य दृष्टि प्राप्त त्रिकालज्ञ महर्षियों ने भगवान् के द्वारा निर्मित इस सत्य को प्रत्यक्षरूप से प्राप्त किया और इसी सत्य पर समाज का निर्माण करके उसे सुव्यवस्थित, शान्ति, शीलमय ,सुखी, कर्मप्रवण, स्वार्थदृष्टिशून्य कल्याणप्रद और सुरक्षित बना दिया। सामाजिक सुव्यवस्था के लिये मनुष्यों के चार विभाग की सभी देशों और सभी कालों में आवश्यकता हुई है और सभी में चार विभाग रहे और रहते भी हैं। परन्तु इस ऋषियों के देश में वे जिस सुव्यवस्थितरूप से रहे, वैसे कहीं नहीं रहे।’ समाज में धर्म की स्थापना और रक्षा के लिये और समाज-जीवन को सुखी बनाये रखने के लिये, जहाँ समाज की जीवन-पद्धिति में कोई बाधा उपस्थित हो, वहाँ प्रयत्न के द्वारा उस बाधा को दूर करने के लिये, कर्मप्रवाह के भँवर को मिटाने के लिये, उलझनों को सुलझाने के लिये धर्मसंकट उपस्थित होने पर समुचित व्यवस्था देने के लिये परिष्कृत और निर्मल मस्तिष्क की आवश्यकता है। धर्म की और धर्म में स्थित समाज की भौतिक आक्रमणों से रक्षा करने के लिये बाहुबल की आवश्यकता है। मस्तिष्क और बाहु का यथायोग्य रीति से पोषण करने के लिये धन की और अन्न की आवश्यकता है। और उपर्युक्त कर्मों को यथायोग्य सम्पन्न कराने के लिये शारीरिक परिश्रम की आवश्यकता है। इसलिये समाज-शरीर का मस्तिष्क ब्राह्मण है, बाहु क्षत्रिय है, ऊरु वैश्य है और चरण शूद्र है। चारों एक ही समाज शरीर के चार आवश्यक अंग हैं और एक-दूसरे की सहायता पर सुरक्षित और जीवित हैं। घृणा या अपमान की तो बात ही क्या है, इसमें से किसी की तनिक भी अवहेलना नहीं की जा सकती। न इनमें नीच-ऊँच की ही कल्पना है। अपने-अपने स्थान और कार्य के अनुसार चारों ही बड़े हैं। ब्राह्मण ज्ञानबल से, क्षत्रिय बाहुबल से, वैश्य धनबल से और शूद्र जनबल या श्रमबल से बड़ा है। और चारों की पूर्ण उपयोगिता है। उनकी उत्पत्त्ति भी एक ही भगवान् के शरीर से हुई है-ब्राह्मण की उत्पत्त्ति भगवान् के श्रीमुख से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्य की ऊरु से और शूद्र के चरणों से हुई है। ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरु तदस्य यद् वैश्यः दभ्यां अजायत।। (ऋग्वेद सं0 10। 90।12)
परन्तु इनका यह अपना-अपना बल न तो स्वार्थसिद्धि के लिये है और न किसी दूसरे को दबाकर स्वयं ऊँचा बनने के लिये ही है। समाज शरीर के आवश्यक अंगों के रूप में इनका योग्यतानुसार कर्मविभाग है। और यह है केवल धर्म के पालने-पलवाने के लिये ही। ऊँच-नीच का भाव न होकर यथायोग्य कर्म– विभाग होने के कारण ही चारों वर्णों में ऐ शक्ति-सामंजस्य रहता है। कोई भी किसी की न अवहेलना कर सकता है, न किसीके न्याय अधिकार पर आघात कर सकता है। इस कर्मविभाग और कर्माधिकार के सुदृढ़ आधार पर रचित यह वर्णधर्म ऐसा सुव्ययस्थित है कि इसमें शक्ति-सामंजस्य अपने-आप ही रहता है। स्वयं भगवान् ने और धर्मनिर्माता ऋषियों ने प्रत्येक वर्ण के कर्मों का अलग-अलग स्पष्ट निर्देश करके तो सबको अपने-अपने धर्म का निर्विघ्न पालन करने के लिये और भी सुविधा कर दी है और स्वकर्म का पूरा पालन होने से शक्ति-सामंजस्य में कभी बाधा आ ही नहीं सकती। यूरोप आदि देशों में स्वाभाविक ही मनुष्य-समाज के चार विभाग रहने पर भी निर्दिष्ट नियम न होने के कारण शक्ति-सामंजस्य नहीं है। इसी से कभी ज्ञानबल सैनिक-बलको दबाता है और कभी जनबल धनबल को परास्त करता है। भारतीय वर्ण विभाग में ऐसा न होकर सबके लिये पृथक्-पृथक् कर्म निर्दिष्ट हैं ऋषि सेवित वर्णधर्म में ब्राह्मण का पद सबसे ऊँचा है, वह समाज के धर्म का निर्माता है, उसी की बनायी हुई विधि को सब मानते हैं। वह सबका गुरु और पथप्रदर्शन है; परन्तु वह धन-संग्रह नहीं करता, न दण्ड ही देता है, न भोग-विलास में ही रुचि रखता है। स्वार्थ तो मानो उसके जीवन में है ही नहीं। धनैश्वर्य और पद-गौरव को धूल के समान समझ कर वह फल-मूलों पर निर्वाह करता हुआ सपरिवार शहर से दूर वन में रहता है। दिन-रात तपस्या, धर्मसाधन और ज्ञानार्जन में लगा रहता है और अपने शम, दम, तितिक्षा, क्षमा आदि से समन्वित महान् तपोबल के प्रभाव से दुर्लभ ज्ञाननेत्र प्राप्त करता है और उस ज्ञान की दिव्य ज्योति से सत्य का दर्शन कर उस सत्य को बिना किसी स्वार्थ के सदाचारपरायण, साधु स्वभाव पुरुषों के द्वारा समाज में वितरण कर देता है। बदले में कुछ भी चाहता नहीं। समाज अपनी इच्छा से जो कुछ दे देता है या भिक्षा से जो कुछ मिल जाता है, उसी पर वह बड़ी सादगी से अपनी जीवन यात्रा चलाता है। उसके जीवन का यही धर्ममय आदर्श है। क्षत्रिय सबपर शासन करता है। अपराधी को दण्ड और सदाचारी को पुरस्कार देता है। दण्डबल से दुष्टों को सिर नहीं उठाने देता और धर्म की तथा समाज की दुराचारियों, चोरों, डाकुओं और शत्रुओं से रक्षा करता है। क्षत्रिय दण्ड देता है, परन्तु कानून की रचना स्वयं नहीं करता। ब्राह्मण के बनाये हुए कानून के अनुसार ही वह आचरण करता है। ब्राह्मण रचित कानून के अनुसार ही वह प्रजा से कर वसूल करता है और उसी कानून के अनुसार प्रजाहित के लिये व्यवस्थापूर्वक उसे व्यय कर देता है। कानून की रचना ब्राह्मण करता है और धन का भंडार वैश्य के पास है। क्षत्रिय तो केवल विधि के अनुसार व्यवस्थापक और संरक्षकमात्र है। धन का मूल वाणिज्य, पशु और अन्न सब वैश्य के हाथ में है। वैश्य धन-उपार्जन करता है और उसको बढ़ाता है, किन्तु अपने लिये नहीं। वह ब्राह्मण के ज्ञान और क्षत्रिय के बल से संरक्षित होकर धन को सब वर्णों के हित में उसी विधान के अनुसार व्यय करता है। न शासन पर उसका कोई अधिकार है और न उसे उसकी आवश्यकता ही है। क्योंकि ब्राह्मण और क्षत्रिय उसके वाणिज्य में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं करते, स्वार्थवश उसका धन कभी नहीं लेते वरं उसकी रक्षा करते हैं और ज्ञानबल और बाहुबल से ऐसी सुव्यवस्था करते हैं कि जिससे वह अपना व्यापार सुचारुरूप से निर्विघ्न चला सकता है। इससे उसके मन में कोई असंतोष नहीं है। और वह प्रसन्नता के साथ ब्राह्मण और क्षत्रिय का प्राधान्य मानकर चलता है और मानना आवश्यक भी समझता है, क्योंकि इसी में उसका हित है। वह खुशी से राजा को कर देता है, ब्राह्मण की सेवा करता है और विधिवत् आदरपूर्वक शूद्र को भरपूर अन्न-वस्त्रादि देता है। अब रहा शूद्र, शूद्र स्वाभाविक ही जनसंख्या में अधिक है। शूद्र में शारीरिक शक्ति प्रबल है, परन्तु मानसिक शक्ति कुछ कम है। अतएव शारीरिक श्रम ही उसके हिस्से में रखा गया है। और समाज के लिये शारीरिक शक्ति की बड़ी आवश्यकता भी है। परन्तु इसकी शारीरिक शक्ति का मूल्य किसी से कम नहीं है। शूद्र के जनबल के ऊपर ही तीनों वर्णों की प्रतिष्ठा है। यही आधार है। पैर के बल पर ही शरीर चलता है। अतएव शूद्र को तीनों वर्ण अपना प्रिय अंग मानते हैं। उसके श्रम के बदले में वैश्य प्रचुर धन देता है, क्षत्रिय उसके धन-जन की रक्षा करता है और ब्राह्मण उसको धर्म का, भगवत्-प्राप्ति का मार्ग दिखलाता है। न तो स्वार्थसिद्धि के लिये कोई वर्ण वर्ण शूद्र की वृत्ति हरण करता है, न स्वार्थवश उसे कम कम पारिश्रमिक देता है और न उसे अपने से नीचा मानकर किसी प्रकार का दुर्व्यवहार ही करता है। सब यही समझते हैं कि सब अपना-अपना स्वत्व ही पाते हैं, कोई किसी पर उपकार नहीं करता। परन्तु सभी एक-दूसरे की सहायता करते हैं और सब अपनी उन्नति के साथ उसकी उन्नति करते हैं और उसकी उन्नति में अपनी उन्नति और अवनति में अपनी अवनति मानते हैं। ऐसी अवस्था में जनबलयुक्त शूद्र सन्तुष्ट रहता है, चारों में कोई किसी से ठगा नहीं जाता, कोई किसी से अपमानित नहीं होता। एक ही घर के चार भाइयों की तरह एक ही घर की सम्मिलित उन्नति के लिये चारों भाई प्रसन्नता और योग्यता के अनुसार बाँटे हुए अपने-अपने पृथक्-पृथक् आवश्यक कर्तव्य पालन में लगे रहते हैं। यों चारों वर्ण परस्पर-ब्राह्मण धर्मस्थान के द्वारा, क्षत्रिय बाहुबल के द्वारा, वैश्य धनबल के द्वारा और शूद्र शारीरिक श्रमबल के द्वारा एक-दूसरे का हित करते हुए समाज की शक्ति बढ़ाते हैं। न तो सब एक-सा कर्म करना चाहते हैं और न अलग-अलग कर्म करने में कोई ऊँच-नीच भाव ही मन में लाते हैं। इसीसे उनका शक्ति-सामंजस्य रहता है और धर्म उत्तरोत्तर बलवान् और पुष्ट होता है। यह है वर्णधर्म का स्वरूप। इस प्रकार गुण और कर्म के विभाग से ही वर्णविभाग बनता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मनमाने कर्म से वर्ण बदल जाता है। वर्ण का मूल जन्म है और कर्म उसके स्वरूप की रक्षा में प्रधान कारण है। इस प्रकार जन्म और कर्म दानों ही वर्ण में आवश्यक हैं। केवल कर्म से वर्ण को मानने वाले वस्तुतः वर्ण को मानते ही नहीं। वर्ण यदि कर्म पर ही माना जाय तब तो एक दिन में एक ही मनुष्य को न मालूम कितनी बार वर्ण बदलना पड़ेगा। फिर तो समाज में कोई श्रृंखला या उसे परम पद की प्राप्ति हो जाती है। अर्थात् ब्राह्मण को अपने शम-दमादि कर्मों से, क्षत्रिय को शूरवीरता, प्रजापालन और दानादि कर्मों से और वैश्य को कृषि आदि कर्मों से जो फल मिलता है, वही शूद्र को सेवा के कर्मों से मिल जाता है। इसलिये जिसका जो स्वाभाविक कर्म है, उसके लिये वही परम कल्याणप्रद है; कल्याण के लिये एक वर्ण को दूसरे वर्ण के कर्मों के ग्रहण करने की जरूरत नहीं है। नियम ही नहीं रहेगा। सर्वथा अव्यवस्था फैल जायेगी। परन्तु भारतीय वर्णधर्म में ऐसी बात नहीं है। यदि केवल कर्म से वर्ण माना जाता तो युद्ध के समय ब्राह्मणोचित कर्म करने को तैयार हुए अर्जुन को गीता में भगवान् क्षत्रियधर्म का उपदेश न करते। मनुष्य के पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही उसका विभिन्न वर्णों में जन्म हुआ करता है। जिसका जिस वर्ण में जन्म होता है, उसको उसी वर्ण के निर्दिष्ट कर्मों का आचरण करना चाहिये। क्योंकि वही उसका स्वधर्म है। और स्वधर्म का पालन करते-करते मर जाना भगवान् श्रीकृष्ण ने कल्याण कारक बतलाया है। ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः।’ साथ ही पर धर्म को ‘भयावह’ भी बतलाया है। यह ठीक ही है; क्योंकि जब वर्णों के स्वधर्म-पालन से ही सामाजिक शक्ति-सामंजस्य रहता है और तभी समाज-धर्म की रक्षा और उन्नति होती है। स्वधर्म का त्याग और परधर्म का ग्रहण व्यक्ति और समाज दोनों के लिये ही हानिकर है। खेद की बात है, विभिन्न कारणों से आर्यजाति की यह वर्ण-व्यवस्था इस समय शिथिल हो चली है। आज कोई भी वर्ण अपने धर्म पर आरूढ़ नहीं है, सभी मनमाने आचरण करने पर उतर रहे हैं और इसका कुफल भी प्रत्यक्ष ही दिखायी दे रहा है।
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