श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- अपने स्वत्व को उदारतापूर्वक यथावश्यक योग्य पात्रों को देते रहना दान देना है।[1] प्रश्न- ईश्वरभाव किसको कहते हैं? उत्तर- शासन के द्वारा लोगों को अन्यायाचरण से रोककर सदाचार में प्रवृत्त करना, दुराचारियों को दण्ड देना, लोगों से अपनी आज्ञा का न्याययुक्त पालन करवाना तथा समस्त प्रजा का हित सोचकर निःस्वार्थभाव से प्रेमपूर्वक पुत्र की भाँति उसकी रक्षा और पालन-पोषण करना-यह ईश्वरभाव है। प्रश्न- ये सब क्षत्रियों के स्वभाविक कर्म हैं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि क्षत्रियों के स्वभाव में सत्त्वमिश्रित रजोगुण की प्रधानता होती है; इस कारण उपर्युक्त कर्मों में उनकी स्वभाविक प्रवृत्ति होती है, इनका पालन करने में उन्हें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। इन कर्मों में भी जो धृति, दान आदि सामान्य धर्म हैं, उनमें सबका अधिकार होने के कारण वे अन्य वर्ण वालों के लिये अधर्म या पर धर्म नहीं हैं, किन्तु ये उनके स्वभाविक कर्म नहीं हैं, इसी कारण ये उनके लिये प्रयत्नसाध्य हैं। प्रश्न- मनुस्मृति में तो प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेदों का अध्ययन करना और विषयों में आसक्त न होना- ये क्षत्रियों के कर्म संक्षेप से बतलाये गये हैं[2]’ और यहाँ प्रायः दूसरे ही बतलाये गये हैं; इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर- यहाँ क्षत्रियों के स्वभाव से विशेष सम्बन्ध रखने वाले कर्मों का वर्णन है; अतः मनुस्मृति में बतलाये हुए कर्मों में क्षत्रियों के स्वभाव से विशेष सम्बन्ध रखने वाले प्रजापालन और दान- इन दो कर्मों को तो यहाँ ले लिया गया है, किन्तु उनके अन्य कर्तव्य-कर्मों का यहाँ विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं किया गया। इसलिये इनके सिवा जो अन्यान्य कर्म क्षत्रियों के लिये दूसरी जगह कर्तव्य बतलाये गये हैं उनको भी इनके साथ ही समझ लेना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 17। 20
- ↑ रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।। (मनुस्मृति 1। 89)
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