श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
श्रीभगवान ने छठे अध्याय के छियालीसवें श्लोक में योगी की महिमा कही और सैंतालीसवें श्लोक में कहा कि योगियों में भी जो मुझमें श्रद्धा प्रेम करके मेरा भजन करते हैं, वे भक्त सर्वश्रेष्ठ है। भक्तों को जैसे भगवान की याद आती है तो वे उसमें तल्लीन हो जाते हैं- मस्त हो जाते हैं, ऐसे ही भगवान के सामने भक्तों का विशेष प्रसंग आता है तो भगवान उसमें मस्त हो जाते हैं। इसी मस्ती में सराबोर होते हुए भगवान अर्जुन के बिना पूछे ही सातवें अध्याय का विषय अपनी तरफ से प्रारंभ कर देते हैं। श्रीभगवानुवाच व्याख्या- ‘मय्यासक्तमनाः’- मेरे में ही जिसका मन आसक्त हो गया है अर्थात अधिक स्नेह के कारण जिसका मन स्वाभाविक ही मेरे में लग गया है, चिपक गया है, उसको मेरी याद करनी नहीं पड़ती, प्रत्युत स्वाभाविक मेरी याद आती है और विस्मृति कभी होती ही नहीं- ऐसा तू मेरे में मन वाला हो। जिसका उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं का और शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध का आकर्षण मिट गया है, जिसका इस लोक में शरीर के आराम, आदर-सत्कार और नाम की बड़ाई में तथा स्वर्गादि परलोक के भागों में किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव, आसक्ति या प्रियता नहीं है, प्रत्युत केवल मेरी तरफ खिंचाव है, ऐसे पुरुष का नाम ‘मय्यासक्तमनाः’ है। साधक भगवान में मन कैसे लगाए, जिससे वह ‘मय्यासक्तमना’ हो जाए- इसके लिए दो उपाय बताए जाते हैं- 1. साधक जब सभी नीयत से भगवान के लिए ही रूप-ध्यान करने बैठता है, तब भगवान उसको अपना भजन मान लेते हैं। जैसे, कोई धनी आदमी किसी नौकर से कह दे कि ‘तुम यहाँ बैठो’, कोई काम होगा तो तुम्हारे को बता देंगे। किसी दिन उस नौकर को मालिक ने कोई काम नहीं बताया। वह नौकर दिनभर ख़ाली बैठा रहा और शाम को मालिक से कहता है- ‘बाबू! मेरे को पैसे दीजिए।’ मालिक कहता है- ‘तुम सारे दिन बैठे रहे, पैसे किस बात के?’ वह नौकर कहता है- ‘बाबूजी! सारे दिन बैठा रहा, इस बात के!’ इस तरह जब एक मनुष्य के लिए बैठने वाले को भी पैसे मिलते हैं, तब जो केवल भगवान में मन लगाने के लिए सच्ची लगन से बैठता है, उसका बैठना क्या भगवान निरर्थक मानेंगे? तात्पर्य यह हुआ कि जो भगवान में मन लगाने के लिए भगवान का आश्रय लेकर, भगवान के ही भरोसे बैठता है, वह भगवान की कृपा से भगवान में मन वाला हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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