श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय अर्जुन उवाच व्याख्या- ‘संन्यासं कर्मणां कृष्ण’- कौटुम्बिक स्नेह के कारण अर्जुन के मन में युद्ध न करने का भाव पैदा हो गया था। इसके समर्थन में अर्जुन ने पहले अध्याय में कई तर्क और युक्तियाँ भी सामने रखीं। उन्होंने युद्ध करने को पाप बताया।[1] वे युद्ध न करके भिक्षा के अन्न से जीवन निर्वाह करने को श्रेष्ठ समझने लगे[2] और उन्होंने निश्चय करके भगवान से स्पष्ट कह भी दिया कि मैं किसी भी स्थिति में युद्ध नहीं करूँगा।[3] प्रायः वक्ता के शब्दों का अर्थ श्रोता अपने विचार के अनुसार लगाया करते हैं। स्वजनों को देखकर अर्जुन के हृदय में जो मोह पैदा हुआ, उसके अनुसार उन्हें युद्धरूप कर्म के त्याग की बात उचित प्रतीत होने लगी। अतः भगवान के शब्दों को वे अपने विचार के अनुसार समझ रहे हैं कि भगवान कर्मों का स्वरूप से त्याग करके प्रचलित प्रणाली के अनुसार तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की ही प्रशंसा कर रहे हैं। ‘पुनर्योगं च शंससि’- चौथे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक में भगवान ने कर्मयोगी को दूसरे किसी साधन के बिना अवश्यमेव तत्त्वज्ञान प्राप्त होने की बात कही है। उसी को लक्ष्य करके अर्जुन भगवान से कह रहे हैं कि कभी तो आप ज्ञानयोग की प्रशंसा[4] करते हैं और कभी कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं।[5] ‘यच्छ्रेन एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चतम्’- इसी तरह का प्रश्न अर्जुन ने दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में भी ‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चतं ब्रूहि तन्मे’ पदों से किया था। उसके उत्तर में भगवान ने दूसरे अध्याय के सैंतालीसवें-अड़तीलसवें श्लोकों में कर्मयोग की व्याख्या करके उसका आचरण करने के लिये कहा। फिर तीसरे अध्याय के दूसरे श्लोक में अर्जुन से ‘तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्रुयाम्’ पदों से पुनः अपने कल्याण की बात पूछी, जिसके उत्तर में भगवान ने तीसरे अध्याय के तीसवें श्लोक में निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध करने की आज्ञा दी तथा पैंतीसवें श्लोक में अपने धर्म का पालन करने को श्रेयस्कर बताया। यहाँ उपर्युक्त पदों से अर्जुन ने जो बात पूछी है, उसके उत्तर में भगवान ने कहा कि कर्मयोग श्रेष्ठ है[6], कर्मयोगी सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है[7], कर्मयोग के बिना सांख्ययोग का साधन सिद्ध होना कठिन है; परंतु कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।[8] इस प्रकार कहकर भगवान अर्जुन को मानो यह बता रहे हैं कि कर्मयोग ही तेरे लिये शीघ्रता और सुगमतापूर्वक ब्रह्म की प्राप्ति करने वाला है; अतः तू कर्मयोग का ही अनुष्ठान कर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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