श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
‘अश्वत्थम्’- ‘अश्वत्थम्’ शब्द के दो अर्थ हैं- (1) जो कल दिन तक भी न रह सके[2] और (2) पीपल का वृक्ष। पहले अर्थ के अनुसार- ‘अश्वत्थ’ पद का तात्पर्य यह है कि संसार एक क्षण[3] भी स्थिर रहने वाला नहीं है। केवल परिवर्तन के समूह का नाम ही संसार है। परिवर्तन का जो नया रूप सामने आता है, उसको उत्पत्ति कहते हैं; थोड़ा और परिवर्तन होने पर उसको स्थिति रूप से मान लेते हैं और जब उस स्थिति का स्वरूप भी परिवर्तित हो जाता है, तब उसको समाप्ति (प्रलय) कह देते हैं। वास्तव में इसकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते ही नहीं। इसलिए इसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होने के कारण यह (संसार) एक क्षण भी स्थिर नहीं है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण आदर्श में जा रहा है। इसी भाव से इस संसार को ‘अश्वत्थम्’ कहा गया है। दूसरे अर्थ के अनुसार- यह संसार पीपल का वृक्ष है। शास्त्रों में अश्वत्थ अर्थात पीपल के वृक्ष की बहुत महिमा गायी गयी है। स्वयं भगवान भी सब वृक्षों में ‘अश्वत्थ’ को अपनी विभूति कहकर उसको श्रेष्ठ एवं पूज्य बताते हैं- ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्’।[4] पीपल, आँवला और तुलसी- इनकी भगवद्भावपूर्वक पूजा करने से वह भगवान की पूजा हो जाती है। परमात्मा से संसार उत्पन्न होता है। वे ही संसार के अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है। अतः संसार रूपी पीपल का वृक्ष भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप होने से पूजनीय है। इस संसार रूप पीपल-वृक्ष की पूजा यही है कि इससे सुख लेने की इच्छा का त्याग करके केवल इसकी सेवा करना। सुख की इच्छा न रखने वाले के लिए यह संसार साक्षात भगवत्स्वरूप है- ‘वासुदेवः सर्वम्’।[5] परंतु संसार से सुख की इच्छा रखने वालों के लिए यह संसार दुःखों का घर ही है। कारण कि स्वयं अविनाशी है और यह संसारवृक्ष प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने के कारण नाशवान्, अनित्य और क्षणभंगुर है। अतः स्वयं की कभी इससे तृप्ति हो ही नहीं सकती; किंतु इससे सुख की इच्छा करके यह बार-बार जन्मता-मरता रहता है। इसलिए संसार से यत्किञ्चित भी स्वार्थ का संबंध न रखकर केवल उसकी सेवा करने का भाव ही रखना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 14:18
- ↑ ‘श्वः’ पर्यन्त न तिष्ठतीति अश्वत्थः- ‘श्वस्’ अव्यय आने वाले कल का वाचक है। जो कल तक स्थिर रहे, उसे ‘श्वत्थ’ तथा जो कल तक स्थिर न रहे, उसे ‘अश्वत्थ’ कहते हैं।
- ↑ ‘क्षण’ का विवेचन दार्शनिकों ने इस प्रकार किया है- कमल के पत्ते पर सूई मारी जाय तो सूई के दूसरी तरफ निकलने में तीन क्षण लगते हैं- पहले क्षण में स्पर्श, दूसरे क्षण में छेदन और तीसरे क्षण में पार निकलना।
- ↑ गीता 10:26
- ↑ गीता 7:19
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