श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
‘छन्दांसि यस्य पर्णानि’- वेद इस संसार वृक्ष के पत्ते हैं। यहाँ वेदों से तात्पर्य वेदों के उस अंश से है, जिसमें सकाम कर्मों के अनुष्ठानों का वर्णन है।[1] तात्पर्य यह है कि जिस वृक्ष में सुंदर फूल-पत्ते तो हों, पर फल नहीं हों तो वह वृक्ष अनुपयोगी है; क्योंकि वास्तव में तृप्ति तो फल से ही होती है, फूल-पत्तों की सजावट से नहीं। इसी प्रकार सुख-भोग चाहने वाले सकाम पुरुष को भोग-ऐश्वर्य फूल-पत्तों से संपन्न यह संसारवृक्ष बाहर से तो सुंदर प्रतीत होता है, पर इससे सुख चाहने के कारण उसको अक्षय सुखरूप तृप्ति अर्थात महान आनंद की प्राप्ति नहीं होती। वेदविहित पुण्यकर्मों का अनुष्ठान स्वर्गादि लोकों की कामना से किया जाए तो वह निषिद्ध कर्मों को करने की अपेक्षा श्रेष्ठ तो है, पर उन कर्मों से मुक्ति नहीं हो सकती; क्योंकि फलभोग के बाद पुण्य कर्म नष्ट हो जाते हैं और उसे पुनः संसार में आना पड़ता है।[2] इस प्रकार सकाम-कर्म और उसका फल- दोनों ही उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। अतः साधक को इन (दोनों) से सर्वथा असंग होकर एकमात्र परमात्मतत्त्व को ही प्राप्त करना चाहिए। पत्ते वृक्ष की शाखा से उत्पन्न होने वाले तथा वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले होते हैं। पत्तों से वृक्ष सुंदर दीखता है तथा दृढ़ होता है (पत्तों के हिलने से वृक्ष का मूल, तना एवं शाखाएँ दृढ़ होती हैं)। वेद भी इस संसार वृक्ष की मुख्य शाखा रूप ब्रह्मा जी से प्रकट हुए हैं और वेदविहित कर्मों से ही संसार की वृद्धि और रक्षा होती है। इसलिए वेदों को पत्तों का स्थान दिया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेदों में सकाम मंत्रों की संख्या तो अस्सी हजार है, पर मुक्त करने वाले मंत्रों की संख्या बीस हजार ही है, जिसमें चार हजार मंत्र ज्ञानकांड के एवं सोलह हजार मंत्र उपासनाकांड के हैं।
- ↑ गीता 9:21
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