श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
जैसे भगवान अनन्यभाव से भजन करने वाले भक्तों का योगक्षेम वहन करते हैं,[1] ऐसे ही जो केवल भगवान के ही परायण हैं, ऐसे प्रेमी भक्तों को[2] भगवान समता और तत्त्वबोध देते हैं। यह सब देने पर भी भगवान उन भक्तों के ऋणी ही बने रहते हैं। भागवत में भगवान ने गोपियों के लिए कहा है कि ‘मेरे साथ सर्वथा निर्दोष (अनिन्द्य) संबंध जोड़ने वाली गोपियों का मेरे पर जो एहसान है, ऋण है, उसको मैं देवताओं के समान लम्बी आयु पाकर भी नहीं चुका सकता। कारण कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, त्यागी आदि भी घर की जिस अपनापनरूपी बेड़ियों को सुगमता से नहीं तोड़ पाते, उनको उन्होंने तोड़ डाला है’।[3] भक्त भगवान के भजन में इतने तल्लीन रहते हैं कि उनको यह पता ही नहीं रहता कि हमारे में समता आयी है, हमें स्वरूप का बोध हुआ है। अगर कभी पता लग भी जाता है तो वे आश्चर्य करते हैं कि ये समता और बोध कहाँ से आए! वे ‘अपने में कोई विशेषता न दिखे’ इसके लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे नाथ! आप समता, बोध ही नहीं, दुनिया के उद्धार का अधिकार भी दे दें, तो भी मेरे को कुछ मालूम नहीं होना चाहिए कि मेरे में यह विशेषता है ‘मैं केवल आपके भजन-चिन्तन में ही लगा रहूँ।’ संबंध- भक्तों पर भगवान की अलौकिक, विलक्षण कृपा की बात सुनकर अर्जुन की दृष्टि भगवान की कृपा की तरफ जाती है और उस कृपा से प्रभावित होकर वे आगे के चार श्लोकों में भगवान की स्तुति करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 9:22
- ↑ उनके न चाहने पर भी और उनके लिए कुछ भी बाकी न रहने पर भी
- ↑ न पारयेऽहं निवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।
या माभजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना ।। (श्रीमद्भा. 10।32।22)
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