श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । अर्थ- उन भक्तों पर कृपा करने के लिए ही उनके स्वरूप (होनेपन) में रहने वाला मैं उनके अज्ञानजन्य अंधकार को देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपक के द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ। व्याख्या- ‘तेषामेवुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः’- उन भक्तों के हृदय में कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं होती। इतना ही नहीं, उनके भीतर मुझे छोड़कर मुक्ति तक की भी इच्छा नहीं होती।[1] अभिप्राय है कि वे न तो सांसारिक चीजें चाहते हैं और न पारमार्थिक चीजें (मुक्ति, तत्त्वबोध आदि) ही चाहते हैं। वे तो केवल प्रेम से मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेमपूर्वक भजन करने को देखकर मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा बन जाए, वे मेरे से कुछ ले लें। परंतु वे मेरे से कुछ लेते नहीं तो द्रवित हृदय होने के कारण केवल उन पर कृपा करने के लिए कृपा-परवश होकर मैं उनके अज्ञानजन्य अंधकार को दूर कर देता हूँ। मेरे द्रवित हृदय होने का कारण यह है कि मेरे भक्तों में किसी प्रकार की किञ्चिन्मात्र भी कमी न रहे। ‘आत्मभावस्थः’- मनुष्य अपना जो होनापन मानते हैं कि ‘मैं हूँ’ तो यह होनापन प्रायः प्रकृति (शरीर) के साथ संबंध जोड़कर ही मानते हैं अर्थात तादात्म्य के कारण शरीर के बदलने में अपना बदलना मानते हैं, जैसे- मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बलवान हूँ, मैं निर्बल हूँ इत्यादि। परंतु इन विशेषणों को छोड़कर तत्त्व की दृष्टि से इन प्राणियों का अपना जो होनापन है, वह प्रकृति से रहित है। इसी होनेपन में सदा रहने वाले प्रभु के लिए यहाँ ‘आत्मभावस्थः’ पद आया है। ‘भावस्ता ज्ञानदीपेन नाशयामि’- प्रकाशमान ज्ञान दीपक के द्वारा उन प्राणियों के अज्ञानजन्य अंधकार का नाश कर देता हूँ। तात्पर्य है कि जिस अज्ञान के कारण ‘मैं कौन हूँ और मेरा स्वरूप क्या है?’ ऐसा जो अनजानपना रहता है, उस अज्ञान का मैं नाश कर देता हूँ अर्थात तत्त्वबोध करा देता हूँ। जिस तत्त्वबोध की महिमा शास्त्रों में गायी गयी है, उसके लिए उनको श्रवण, मनन, निधिध्यासन आदि साधन नहीं करने पड़ते, कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, प्रत्युत मैं स्वयं उनको तत्त्वबोध करा देता हूँ। भक्त जब अनन्यभाव से केवल भगवान में लगे रहते हैं, तब सांसारिक सिद्धि-असिद्धि में सम रहना- यह ‘समता’ भी भगवान देते हैं और जिसके समान पवित्र कोई नहीं है, वह ‘तत्त्वबोध’ (स्वरूपज्ञान) भी भगवान स्वयं देते हैं। भगवान के स्वयं देने का तात्पर्य है कि भक्तों को इनके लिए इच्छा और प्रयत्न नहीं करना पड़ता; प्रत्युत भगवत्कृपा से उनमें समता स्वतः आ जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1) सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत। दीयमानं न गृह्णान्ति विना मत्सेवनं जनाः ।। (श्रीमद्भा. 3।29।13)
‘मेरे प्रेमी भक्तगण मेरी सेवा को छोड़कर सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य औ सायुज्य (इन पाँच प्रकार की) मुक्तियों को देने पर भी नहीं लेते।’
(2) अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने ।। (मानस 7।119।4)
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